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________________ वज्जालग्ग २५ ६६. दिनकर और दिन-दोनों की अखंड प्रतिपत्ति (मैत्री या अनुराग) की शोभा है। दिन के बिना सूर्य और सूर्य के बिना दिन नहीं रह सकता ॥ २॥ ६७. जो मैत्री जल और दुग्ध के समान नहीं है उस से लाभ क्या ? जल जब मिलता है तब दूध को अधिक बना देता है और औटाने पर वही पहले जलता है (आपत्ति में भी वही पहले काम आता है) ॥ ३ ॥ ६८. मित्र उसे बनाना चाहिये जो भित्ति-चित्र के समान किसी भी संकट और देश-काल में कभी विमुख न हो ॥ ४ ॥ ६९. मित्र उसे बनाना चाहिये जो काले कम्बल के समान जल से धोये जाने पर भी सहजरंग को नहीं छोड़ता अर्थात् साथ नहीं छोड़ता है ॥५॥ ७०. *महापुरुष, सगुणों और निर्गुणों में, जिस का जो (कार्य) स्वीकार कर लेते हैं; उस की रक्षा करते हैं। देखो, शिव ने बैल के साथ अपना जीवन बिता दिया ॥ ६॥ ७१. चाहे शिर कट जाय, चाहे कारागार में चले जाएँ और चाहे सब प्रकार से निर्धन ही क्यों न हो जायँ, अंगीकृत की रक्षा में जो होना है वह सब हो जाय, सज्जनों को उस की चिन्ता नहीं रहती है ॥ ७ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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