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________________ ३४ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना करता है। सभी के लिए वह आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। उसके द्वारा सामाजिक हित साधन भी सहज में हो सकता है। फिर भी सामाजिक समत्व की संस्थापना में ऐसा व्यक्तित्व एक मात्र कारक नहीं होता। अतः उसके प्रयास सदैव सफल हों यह अनिवार्य नहीं है। सामाजिक समत्व की संस्थापना समत्वयोग का साध्य तो है लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक समत्व पर नहीं वरन् समाज के सभी सदस्यों के सामूहिक प्रयत्नों पर निर्भर है। फिर भी समत्वयोगी के व्यवहार से न तो सामाजिक संघर्ष उत्पन्न होते हैं और न बाह्य संघर्षों, क्षुब्धताओं और कठिनाइयों से वह अपने मानस को विचलित होने देता है। समत्वयोग का मूल केन्द्र चैतसिक सन्तुलन या समत्व है। वह राग और द्वेष के प्रहाण से उपलब्ध होता है। समत्व का तात्पर्य राग-द्वेष से अतीत होना है। क्योंकि जब तक चित्त में राग-द्वेष बने हुए हैं तब तक समत्व की सम्भावना नहीं है। राग और द्वेष ही हमारी चेतना के समत्व को भंग करते हैं। इसलिए राग-द्वेष का अभाव ही समत्व के सद्भाव का आधार है। राग-द्वेष के निमित्तों को पाकर भी चित्त उनसे आक्रान्त न हो यही समत्वयोग है। राग-द्वेष के कारण ही क्रोधादि कषाएँ जन्म लेती हैं। ये कषाएँ चेतना के समत्व को भंग करती हैं। अतः समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का कषायों से ऊपर उठना है। कषाय एक प्रकार का मानसिक आवेग है। चित्तवृत्ति जब तक आवेगों से युक्त है तब तक समत्व की सम्भावना नहीं है। अतः समत्वयोग वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा साधक कषायों और उनकी जनक राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठता है। एक अन्य दृष्टि से जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती रहती हैं। उन अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त उद्वेलित न हो, ऐसा प्रयत्न ही समत्वयोग है। ज्ञातव्य है कि बाह्य परिस्थिति पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होता। वे अनुकूल अथवा प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की हो सकती हैं। इनमें अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष होता है। अतः अनुकूल और प्रतिकूल अवस्था में चेतना के समत्व को बनाये रखना अर्थात् इनसे उद्वेलित नहीं होना ही समत्वयोग है। वस्तुतः समत्वयोग विविध प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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