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________________ जैन साधना में समत्वयोग का स्थान आन्तरिक संघर्ष मनुष्य की विभिन्न आकांक्षाओं और वासनाओं के कारण होता है। उसके पीछे भी तृष्णा या आसक्ति ही प्रमुख है। समत्वयोग की साधना का अर्थ है कि व्यक्ति आसक्ति से ऊपर उठे। अतः समत्वयोग निराकांक्षता का सूचक है। इसी प्रकार वैचारिक जगत् का सारा संघर्ष आग्रह, पक्ष या दृष्टि के कारण है। भोगासक्ति स्वार्थों की संकीर्णता को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक संकीर्णता को जन्म देती है। संकीर्णता, चाहे वह हितों की हो या विचारों की, संघर्ष को जन्म देती है। समस्त सामाजिक संघर्षों के मूल में यही हितों की या विचारों की संकीर्णता काम कर रही है। इसका फलितार्थ यह है कि समत्वयोग अनाग्रही किन्तु सत्याग्रही जीवनदृष्टि का परिचायक है। __ जब आसक्ति लोभ या राग के रूप में पक्ष उपस्थित होता है तो द्वेष या घृणा के रूप में प्रतिपक्ष भी उपस्थित हो जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष की यह उपस्थिति आन्तरिक संघर्ष का कारण होती है। यह चैतसिक समत्व को भंग करती है, संघर्ष की उपस्थिति में समत्व का अभाव होता है और आन्तरिक शान्ति भी समाप्त हो जाती है। आन्तरिक समता की उपस्थिति में बाह्य जगत् के विक्षोभ हमारे चित्त को विचलित नहीं कर सकते हैं। व्यक्ति के लिए आन्तरिक चैतसिक सन्तुलन ही प्रमुख है। आन्तरिक सन्तुलन व्यक्ति को राग-द्वेष के द्वन्द्व से ऊपर उठाकर वीतरागता की ओर ले जाता है। इससे समत्वयोग की साधना का मार्ग प्रशस्त बन जाता है। वस्तुतः तो वीतरागता ही समत्वयोग की साधना का मूल प्रयोजन है। जब व्यक्ति आन्तरिक सन्तुलन से युक्त होता है तो उसके आचार-विचार और व्यवहार में भी सन्तुलन प्रकट हो जाता है। उसका कोई भी व्यवहार या आचार बाह्य असन्तुलन का कारण नहीं बनता है। आचार और व्यवहार हमारे मन के बाह्य प्रकटन हैं, व्यक्ति के मानस की बाह्य अभिव्यक्ति है। जिसमें आन्तरिक सन्तुलन या समत्व निहित होता है, उसके आचार, विचार और व्यवहार भी समत्वपूर्ण होते हैं। इतना ही नहीं वह बाह्य व्यवहार में एक सांग सन्तुलन स्थापित करने के लिए भी प्रयत्नशील होता है। उसका सन्तुलित व्यक्तित्व प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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