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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
सजग है, तो उसमें विकल्प नहीं उठेंगे। अतः विकल्पों से बचने के लिये आत्मसजगता आवश्यक है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में आत्मा को कर्ता-भोक्ताभाव से हटाकर ज्ञाता दृष्टाभाव में स्थापित करना ही वास्तविक साधना है । आत्मा जब ज्ञाता - दृष्टा भाव में होती है, तभी वह समत्व की अवस्था में होती है । अतः समत्व की साधना के लिये आत्मसजगता या अप्रमत्तता आवश्यक है। जिसे पाश्चात्य विचारक आत्मसजगता कह रहे हैं; उसे ही जैनदर्शन अप्रमत्तता कहता है। जैनदर्शन के अनुसार अप्रमत्तता का साधक ही समत्वयोग की साधना का अधिकारी है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आत्मसजगता समत्वयोग की साधना के लिये आवश्यक है ।
मानवतावादी
विचारकों ने मनुष्य की तीसरी विशेषता आत्मसंयम की शक्ति माना है । जब तक जीवन में वासनाओं और वृत्तियों के नियन्त्रण का प्रयत्न नहीं है तब तक चेतना में समत्व की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । संयम की साधना से ही जीवन में समत्व का विकास होता है । जिस व्यक्ति का अपनी वासनाओं और इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं है, वह सदैव ही तनावग्रस्त रहता है । तनावों से मुक्त रहने के लिये वासनाओं और इन्द्रियों पर नियन्त्रण आवश्यक है ।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त मानवीय गुणों की उपस्थिति में ही समत्व की साधना सम्भव है । ये मानवीय गुण मनुष्य का स्वभाव है । इनके आधार पर ही मनुष्य मनुष्य रहता है । यदि हम यह मानते हैं कि स्वभाव ही धर्म है तो हमें यह मानना होगा कि मनुष्य के लिये उपरोक्त तीन गुणों की साधना ही धार्मिकता की साधना है और ये तीनों गुण समत्व की साधना के साथ जुड़े हुए हैं। इनके अभाव में समत्व की साधना नहीं होती । अतः हम कह सकते हैं कि समत्व की साधना ही धर्म की आराधना है।
१. ३ योग शब्द का अर्थ
जैन साधना के सभी विशिष्ट अनुष्ठानों में समत्वयोग या
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