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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
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कहा है । ५
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साधक सदैव समभाव में रहे, न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे, वह दोनों में समभाव रखे। शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी साधक समभाव में रहे । साधक मन को अविचलित अर्थात् एकाग्र बनाए रखे।" साधक आभ्यन्तर एवम् बाह्य सभी कर्मों का क्षय करके समभाव में जीने का अभ्यास करे । विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति समान भाव रखना तथा उन्हें आत्मतुल्य समझना ही समभाव की साधना है । जो समभाव की साधना करता है वही श्रमण है । २० वस्तुतः समतामय जीवन जीने की कला ही समत्वयोग की साधना है ।
च।।'
तृण और कंचन, शत्रु और मित्र आदि विषमताओं के प्रसंगों में समभाव से अपने चित्त को आसक्ति रहित रखना और उचित प्रवृत्ति करना ही समत्वयोग की साधना है । "
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कहा भी गया है :
जो किसी के प्रति न राग करता है और न द्वेष करता है, अपितु समभाव में रहता है वही श्रमण है । २२
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'समभावो सामाइयं तण - कंचनसत्तु - मित्त-विसउत्ति णिरभिसंगचित्तं उचितपवित्ति पहाणं
१५ 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए || १५७।। '
१६ जीवियं णाभिकंखेज्जा मरणं णोवि पत्थए ।
दुहतोवि ण सज्जेज्जा जीविते मरणे तहा ।।
'इंदिएहिं गिलायंते समियं साहरे मुणी । तहावि से अगरि अचले जे समाहिए ।'
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'दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे योगे-वियोगे भुवने वने वा निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ।।' “हे प्रभु, मेरा मन ममत्व बुद्धि से रहित होकर सुख-दुःख,
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आचारांगसूत्र १/२/३/७५ |
‘गंथेहिं विवित्तॆहिं आयुकालस्स पारए । पग्गहीयतरंग चेयं दवियस्स वियाणतो ।'
प्रश्नव्याकरणसूत्र २/४ |
बोधपाहुड ४६ ।
२२ 'समियाए सपणो होइ' ।
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- आचारांगसूत्र १/५/३ ।
-वही १/८/८/१६ |
-वही १/८/८/२६ |
- उत्तराध्ययनसूत्र २५ / ३२ ।
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