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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
अर्थात् आज तक जो भी साधक अतीतकाल में मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होंगे यह सब समत्वयोग (सामायिक) की साधना का ही प्रभाव है।
आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र में लिखते हैं कि राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने को ही समभाव की साधना कहते हैं। इन पर विजय की प्राप्ति का मार्ग बताते हुए वे कहते हैं कि तीव्र आनन्द को उत्पन्न करनेवाले समभावदृष्टि जल में अवगाहन करने वाले साधक की राग-द्वेष रूपी अग्नि सहज ही नष्ट हो जाती है।" समत्व के अवलम्बन से अन्तर्मुहूर्त में जो कर्म क्षीण हो सकते हैं, वे तीव्र तपस्या से करोड़ों जन्मों में भी नष्ट नहीं हो सकते।२ जैसे आपस में दो वस्तु चिपकी हुई हों तो बाँस आदि की सलाई से पृथक् की जाती है, उसी प्रकार परस्पर बद्ध आत्मा और कर्म को मुनिजन समत्व भाव की शलाका से पृथक् कर देते हैं।३ समभाव रूपी सूर्य के द्वारा राग-द्वेष और मोह दृष्टि तिमिर का नाश करके योगी अपनी आत्मा में परमात्मा को देखने लगता है अर्थात् वह आत्मानुभूति कर लेता है। इस प्रकार जैन-साधना में समत्वयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह सिद्ध होता है।"
जैन-आगमों में समत्वयोग
जैनागमों में समत्वयोग सम्बन्धी अनेक निर्देश मिलते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि महापुरुषों ने समभाव में धर्म
-योगशास्त्र ४ ।
-वही ।
१० 'अस्ततन्दैरतः पुम्भिनिर्वाणपदकांक्षिभिः ।
विधातव्यः समत्वेन रागद्वेषद्विषज्जयः ।। ४६ ।। ११ 'अमन्दानन्दजनने साम्यर्वारणि मज्जताम् ।
जायते सहसा पुंसा, रागद्वेषमलक्षयः ।। ५० ।।' १२ 'प्रणिहन्ति क्षणार्धेन, साम्यमालम्ब्य कर्म तत् ।। ___ यन्न हन्यानरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः ।। ५१ ।।' १३ 'कर्मजीवं च संश्लिष्टं परिज्ञातात्मनिश्चयः ।।
विभिन्नी कुरुते साधुः सामायिकशलाकया ।। ५२ ।।' १४ 'रागादिध्वान्तविध्वंसे, . कृते सामायिकांशुना ।
स्वस्मिन् स्वरूपं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः ।। ५३ ।।'
-वही ।
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-वही ।
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