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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग की जो चर्चा है, वह साधनयोग की चर्चा है एवं गीता का साध्य योग तो समत्वयोग ही है। समत्व के अभाव में ज्ञान, कर्म अथवा भक्ति योग नहीं बनते हैं। इस प्रकार सभी भारतीय चिन्तकों ने जीवन के चरम साध्य के रूप में समत्वयोग को ही स्वीकार किया है। _प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में हमने समत्वयोग के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि अनासक्ति, वीतरागता या तृष्णा का उच्छेद वस्तुतः समत्व के ही पर्याय हैं। भारतीय मनीषियों ने और विशेष रूप से जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार किया है कि यदि समत्व हमारे जीवन का साध्य है अथवा हमारा शुद्ध स्वभाव है, तो फिर उससे विचलन क्यों होता है ? प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमने इस प्रश्न पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला है कि समत्व हमारा स्वभाव है, क्योंकि कोई भी प्राणी तनाव या विक्षोभ की अवस्था में रहना नहीं चाहता। उसके समस्त प्रयत्न तनाव और विक्षोभों को समाप्त करके समत्व की उपलब्धि के लिए ही होते हैं।
यह सत्य है कि समत्व हमारा स्वभाव है; किन्तु व्यक्ति में निहित इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और राग-द्वेष के तत्व हमारे उस समत्व को भंग कर देते हैं। जिस प्रकार शीतल जल अग्नि के संयोग से उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेष, आसक्ति, तृष्णा आदि के कारण से हमारा चैतसिक समत्व भी भंग हो जाता है और हम विक्षोभों और तनावों में जीने लगते हैं। समत्व-स्वभाव से युक्त आत्मा में राग-द्वेष, इच्छा, आकांक्षा, आसक्ति और तृष्णा की उपस्थिति ही उसके समत्व से विचलन का कारण है। इसके कारण न केवल हमारा मानस विक्षोभित एवं तनावग्रस्त बनता है अपितु पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश भी तनाव से युक्त बन जाता है। व्यक्ति के चैतसिक समत्व का भंग होना न केवल उसके जीवन को अशान्त बनाता है, अपितु सम्पूर्ण वैश्विक व्यवस्था को तनावग्रस्त और अशान्त बना देता है। इसलिए न
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'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १२ ।
_ -डॉ. सागरमल जैन ।
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