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________________ अध्याय ७ उपसंहार सभी भारतीय साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य चित्त की निर्विकल्प अवस्था या समाधि को प्राप्त करना रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो चित्तवृत्ति का समत्व समग्र साधना पद्धतियों का सार है। जैनदर्शन में वीतराग अवस्था, बौद्धदर्शन में वीततष्ण होना तथा हिन्दू धर्म-दर्शन में अनासक्त होना ही उनकी साधनाओं का लक्ष्य माना गया है। योगदर्शन में चित्तवृत्ति के निरोध को ही योग कहा है। वस्तुतः जब चित्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर समभाव में स्थित होता है, तब ही व्यक्ति आत्मपूर्णता या आत्मतोष की अनुभूति करता है। चित्त की इसी निर्विकल्प अवस्था को ही समाधि, निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति आदि नामों से जाना जाता है। जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि “मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मोक्ष है।' बौद्धदर्शन में निर्वाण का अर्थ चित्त में लगी हुई तृष्णा की आग का बुझ जाना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैनदर्शन अपितु बौद्धदर्शन, वेदान्त और योगदर्शन सभी एक स्वर से यह मानते हैं कि चित्तवृत्ति का निर्विकल्प हो जाना अथवा उसका तनाव और विक्षेभों से रहित हो जाना ही जीवन का परम लक्ष्य है। जैनदर्शन में इसे ही सामायिक या समत्वयोग की साधना कहा गया है। भगवान महावीर ने भगवतीसूत्र में स्पष्ट रूप से यह बताया है कि आत्मा का स्वभाव समत्व है और उस समत्व को प्राप्त कर लेना यही जीवन का चरम पुरुषार्थ है। इसी प्रकार से श्रीमद्भागवत् में भी कहा गया है कि समत्व की साधना ही परमात्मा की आराधना है। गीता भी समत्व की साधना को ही योग कहती है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन का यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि ' प्रवचनसार १/५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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