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________________ ३५८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना वे अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि जब व्यक्ति की वृत्ति में अनासक्ति, आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह, वैचारिक क्षेत्र में अनेकान्त और व्यवहार के क्षेत्र में अहिंसा का विकास होगा; तो ही व्यक्ति विक्षोभों, तनावों तथा द्वन्द्वों से मुक्त होकर समरसतापूर्वक और शान्तिपूर्वक जीवन जी सकेगा । समत्वयोग की साधना की पूर्णता ही इसी तथ्य में निहित है कि व्यक्ति तनावों से मुक्त बने और यह तभी सम्भव है; जब व्यक्ति समता, अहिंसा, अनेकान्त या अनाग्रह एवं अनासक्ति या अपरिग्रह अपने जीवन में अपनाये । आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में भी इन मानसिक और सामाजिक द्वन्द्वों से ऊपर उठने की बात कही गई है। इसका सुन्दर चित्रण डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने द्वन्द्व निवारण की विधियों के रूप में से प्रस्तुत किया है । हम यहाँ उसे यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं। I ६. ३ द्वन्द्व निराकरण की प्रविधियाँ आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में द्वन्द्व निराकरण के अनेक उपाय बताए गए हैं । किन्तु ये सभी उपाय तभी सफल हो सकते हैं; जब हम कुल मिलाकर अपने मानसिक गठन को इनके उपयुक्त बना सकें। कैट्स और लॉयर ने परस्पर विरोधी हितों पर आधारित द्वन्द्व के निराकरण हेतु जिस व्यापक मनोगठन (Overall Frame) की चर्चा की है उसमें चार तत्त्व महत्त्वपूर्ण बताए गए हैं । वे ये हैं : (क) एक दूसरे के लिए सम्मान और न्यायप्रियता (Respect & Integrity); (ख) सौहार्दपूर्ण सम्पर्क (Rapport); (ग) साधन सम्पन्नता (Resourcefulness); (घ) रचनात्मक वृत्ति (Constructive attitude). सम्मान और न्यायप्रियता का अर्थ है कि हम द्वन्द्व की स्थिति १६ 'द्वन्द्व और द्वन्द्व का निराकरण-श्रमण' अक्टो.- दिसं. १६६६ पृ. ८-६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - सुरेन्द्र वर्मा । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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