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आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग
की इच्छा या जैनदर्शन की दृष्टि से पूर्व कर्म का उदय या केवली के ज्ञान के रूप में देखा जाये; तो फिर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों से विक्षोभ या तनाव उत्पन्न नहीं होंगे ।
व्यक्ति के जीवन में तनाव इसीलिए उत्पन्न होते हैं कि वह सदैव ही इच्छाओं और आकांक्षाओं से जुड़ा रहता है । इच्छाएँ और आकांक्षाएँ सर्व प्रथम हमारे चित्त को उद्वेलित करती हैं और एक मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व को जन्म देती हैं; क्योंकि इच्छाएँ अनेक होती हैं और कभी पूर्ण भी नहीं होती हैं । व्यक्ति को प्रतिसमय उनके तनाव के हेतु मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व से गुजरना होता है। मनोवैज्ञानिक या आन्तरिक परिणामस्वरूप उसका वैयक्तिक जीवन अशान्त बनता ही है; वह पारिवारिक और सामाजिक द्वन्द्वों को भी जन्म देता है । ये द्वन्द्व कितने प्रकार के हैं, इसकी विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं।
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इन द्वन्द्वों का निराकरण कैसे हो और व्यक्ति तनावमुक्त बने; इसके लिए जैनदर्शन में निम्न उपाय बताये गये हैं :
(१) आन्तरिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व से बचने के लिए व्यक्ति इच्छाओं-आकाँक्षाओं तथा राग-द्वेषपर उठकर समत्वयोग की साधना करे । समत्वयोग की साधना के द्वारा ही हम आन्तरिक विक्षोभों, तनावों या द्वन्द्वों से मुक्त हो सकते हैं । इसके लिए हमें वर्तमान में जीने का अभ्यास करना होगा और वर्तमान से सन्तुष्ट रहना होगा। समत्वयोग की साधना द्वारा इस आन्तरिक द्वन्द्व से मुक्त होकर व्यक्ति जैनदर्शन की भाषा में वीतराग और गीता की भाषा में स्थितप्रज्ञ बनता है और आन्तरिक द्वन्द्वों से ऊपर उठ जाता है । (२) जहाँ तक सामाजिक द्वन्द्वों का प्रश्न है; उससे ऊपर उठने के लिए हमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की दृष्टि का विकास करना होगा । आत्मतुल्यता का सिद्धान्त भी एक ऐसा सिद्धान्त है, जो सामाजिक विक्षोभों और तनावों से हमें मुक्त कर सकता है ।
जैन दार्शनिकों ने इसके लिए मुख्य रूप से तीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है :
१. वैचारिक संघर्षों को समाप्त करने के लिए वे अनेकान्त दृष्टि को आवश्यक मानते हैं;
२. आर्थिक संघर्षों के निराकरण के लिए अपरिग्रह का विकास आवश्यक है; और
३. सामाजिक और राजनैतिक संघर्षों से ऊपर उठने के लिए
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