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________________ आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग ३५५ ही बन सकता है। अतः समत्व शुभ है और ये विषमताएँ अशुभ हैं। समत्व का सृजन वीतरागदशा या अनासक्ति के भाव करते हैं। जीवन में समत्व को असन्तुलित करने का एक कारण वातावरण भी है। वातावरण भी व्यक्ति को प्रभावित करता है। शुद्ध, निर्मल वातावरण में व्यक्ति का चित्त सन्तुलित या समत्वमय बना रहता है। _ जैनदर्शन के साथ-साथ अन्य भारतीय दर्शनों के अनुसार भी जीवन का लक्ष्य समत्व में ही निहित है। समत्वपूर्ण जीवन ही आदर्श जीवन है। जैनदर्शन में पूर्ण समत्व की इस दशा को वीतराग दशा कहा जाता है। गीता इसी पूर्ण समत्व की स्थिति को स्थितप्रज्ञता कहती है; जबकि बौद्धदर्शन में इसे अर्हतावस्था कहा जाता है। जैनदर्शन में जीवन का आदर्श आध्यात्मिक समत्व ही है। ___ द्वन्द्व या संघर्ष निवारण के उपायों में जैनदर्शन समत्व या सामायिक को महत्त्वपूर्ण बताता है। जहाँ द्वन्द्व या संघर्ष है; वहाँ विरोध है, राग-द्वेष है। जहाँ समत्व या समभाव है; वहाँ द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। ___द्वन्द्व पारस्परिक विरोध को अभिव्यक्त करता है; जैसे शीत-उष्ण, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-अलाभ, इष्ट-अनिष्ट, जन्म-मरण, संयोग-वियोग आदि। ऐसी परस्पर विरोधी स्थितियों के बिना द्वन्द्व सम्भव नहीं होता। दो विरोधी अवस्थाओं या दलों के बीच द्वन्द्व की स्थिति तभी बनती है, जब व्यक्ति के चित्त का समत्व भंग होता है। भारतीय दर्शनों का लक्ष्य सुख-शान्ति की उपलब्धि है, किन्तु सुख-शान्ति युग्म होकर एक दूसरे के परस्पर विरोधी नहीं हैं; अपितु पूरक हैं। ये कभी भी द्वन्द्वात्मक स्थिति को प्रदर्शित नहीं करते क्योंकि इनमें विरोध नहीं है। अतः पूरक युग्म नहीं, विरोधी-युग्म ही द्वन्द्व का हेतु है। द्वन्द्व के निवारण के लिए यदि हम उसके विरोध को सम्यक प्रकार से जानलें और समझलें, तो द्वन्द्व वहीं समाप्त हो सकता है। उसका आगे विकास नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने द्वन्द्व को सम्यक् प्रकार से जान लिया था। उन्होंने मान-अपमान, हर्ष-विषाद, लाभ-अलाभ, मैत्री-अमैत्री और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखा था। द्वन्द्वात्मक स्थितियों के प्रति वे स्वयं जाग्रत रहते और दूसरों को जाग्रत रहने के लिए प्रोत्साहित करते। वे कहते थे कि “अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जाग्रत रहते हैं। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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