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________________ ३५४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य हमेशा यही रहना चाहिए कि वह जीवन में असन्तुलन, कुपोषण और अव्यवस्था को समाप्त कर एक विकसित, सन्तुलित, सुनियोजित एवं व्यवस्थित जीवन प्रणाली का निर्माण करे और मानव समाज की संरचना में सहायक हो सके। वह समाज में समता को स्थापित कर सके और इन संघर्षों से मुक्त होकर स्वयं जीवन के अन्तिम लक्ष्य समत्व को प्राप्त कर सके; जिससे आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष और उसके परिणामस्वरूप होने वाले समाजगत एवं राष्ट्रगत संघर्ष स्वयं ही समाप्त हो जाये। जीवन का सन्तुलन जीवन के अन्दर ही निहित है। उसे बाहर खोजना प्रवंचना है। संघर्ष नहीं समत्व ही मानवीय जीवन का आदर्श हो सकता है और समत्व तब ही सम्भव है, जब जीवन में द्वन्द्व समाप्त हो। विज्ञान के अनुसार भी जीवन का आदर्श या स्वभाव समत्व ही सिद्ध होता है; क्योंकि स्वभाव का निराकरण सम्भव नहीं है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य के स्वभाव में संघर्ष है और पूरा मानवीय इतिहास वर्ग-संघर्ष की कहानी है। लेकिन यह सत्य नहीं है; क्योंकि संघर्ष के निराकरण के लिए प्रयत्न किये जाते हैं और जिसका निराकरण किया जाता है, वह स्वभाव नहीं है। हमें इस संघर्ष का निराकरण करने के लिए समत्व रूपी औषधि ग्रहण करनी पड़ेगी। संघर्ष या द्वन्द्व का इतिहास स्वभाव का इतिहास नहीं, बल्कि विभाव का इतिहास है। मानव का मूल स्वभाव द्वन्द्व या संघर्ष नहीं, वरन् संघर्ष का निराकरण कर समत्व की अवस्था की प्राप्ति है। ये मानवीय प्रयास युगों से चले आ रहे हैं। इसी कारण सच्चा इतिहास वर्ग-संघर्ष की कहानी नहीं - संघर्षों के निराकरण की कहानी है। जीवन में समत्व से विचलन होता रहता है। लेकिन यह विचलन जीवन का स्वभाव नहीं है। जीवन की प्रक्रिया संघर्ष या द्वन्द्व का निराकरण करके समत्व में अवस्थित होना है। राग-द्वेष, वासना, आसक्ति, वितर्क आदि जीवन को असन्तुलित बनाकर तनाव उत्पन्न करते हैं। न केवल जैनदर्शन इन विकारों को अशुभ मानता है; वरन् सम्पूर्ण भारतीयदर्शन भी इसे अशुभ स्वीकार करता है। ये जीवन का साध्य नहीं बन सकते। जीवन का साध्य समत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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