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________________ आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग ३४६ उत्तरदायी है। सन्त आनन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा ही कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। कर्मफल के दो रूप हैं : (१) सुखरूप; और (२) दुःखःरूप। आत्मा के अनुकूल संवेदना (अनुभव) होना सुखरूप कर्मफल है और आत्मा के प्रतिकूल संवेदना होना दुःख-रूप। वास्तव में निश्चयनय की अपेक्षा से तो शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख रूप प्रतिपल का संवेदन आत्मा के स्वस्वभाव से भिन्न है; क्योंकि सुख-दुःख पुद्गल की अवस्था के निमित्त होते हैं। आत्मा तो केवल उनकी साक्षी है। वह तो मात्र दर्शक है। वस्तुतः जब आत्मा इन बाह्य तत्वों से प्रभावित होती है तो वह असन्तुलित होती है; उसका समत्व भंग होता है और चित्त में अतद्वन्द्व या द्वन्द्व का जन्म होता है। ___ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब चेतन-जीवन का विश्लेषण करते हैं तो हमें उसके तीन पक्ष मिलते हैं : (१) जानना (Knowing); (२) अनुभव करना (Feeling); और (३) इच्छा करना (Willing) । दूसरे शब्दों में ज्ञान, अनुभव तथा इच्छा (संकल्प) - ये तीनों चेतना के तीन पहलू हैं। इनके कारण ही जीवन में विविध चैतसिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति होती है। चेतन जीवन का लक्ष्य ज्ञान, अनुभूति और इच्छा (संकल्प) की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैनदर्शन के अनुसार जीवन की प्रक्रिया समत्व के संस्थापन का प्रयत्न है तथा चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पनात्मक पक्षों का समत्व की दिशा में विकास करना है।” (क) 'सुख-दुःख रूप करम फल जानो, निश्चय एक आनन्दो रे चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचन्दो रे ।' -आनन्दघन ग्रन्थावली (वासुपूज्य जिन स्तवन) । (ख) 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुष्पट्ठिय-सुपट्ठियो ।। ३७ ।।' -उत्तराध्ययन अध्याय २० । १० आनन्दघन का रहस्यवाद पृ. १७७ । 17 'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४०६ । -डॉ सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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