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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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गीता का यथार्थ योग समत्वयोग है। छठे अध्याय में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था कि मन की चंचलता के कारण समत्व को पाना सम्भव नहीं है। इस मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, तप, ध्यान और भक्ति ही साधन बताये गये हैं। किन्तु इनमें सबसे श्रेष्ट तो समत्वयोग ही है। समत्वयोग में योग शब्द का अर्थ जोड़ना नहीं है; क्योंकि समत्वयोग भी ऐसी अवस्था में साधनयोग होगा - साध्ययोग नहीं। एकाग्रता, ध्यान या समाधि भी समत्वयोग के साधन हैं।
आचार्य शंकर कहते हैं कि गीता में समत्वयोग का अर्थ आत्मतुल्यता या आत्मवत दृष्टि है। प्रत्येक प्राणी के प्रति आत्मवत दृष्टि अथवा समानता का भाव हो तथा सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल, मान-अपमान, शत्रुता-मित्रता आदि परिस्थितियों में मन विचलित नहीं हो; यही समत्वयोग की साधना है। संकल्प-विकल्पों से मानस का मुक्त होना ही समत्व है। समत्व न केवल तुल्यदृष्टि या आत्मवत् दृष्टि है, अपितु मध्यस्थ-दृष्टि, वीतराग-दृष्टि एवं अनासक्त दृष्टि भी है।
गीता में अनेक दृष्टिकोणों से समत्वयोग की शिक्षा दी गई है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'हे अर्जुन! मोक्ष या अमरत्व का अधिकारी वही व्यक्ति होता है, जो सुख-दुःख में समभाव रखता है तथा इन्द्रियों को व्याकुल नहीं होने देता।'५७ समत्व से युक्त व्यक्ति कभी पाप नहीं करता। वह सुख-दुःख, जय-पराजय या लाभ-हानि में विचलित नहीं होता है। समत्वभाव से युक्त होकर यदि वह युद्ध भी करे, तो भी उसे पाप नहीं लगता है।"५८ आगे वे कहते हैं कि "हे अर्जुन! सिद्धि असिद्धि में समभाव रखकर तथा आसक्ति का
-वही।
- वही।
__ 'तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। ४६ ।।' ५६ 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।' 'यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।। १५ ।।' ___ 'सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८ ।।'
-गीता अध्याय २ ।
-वही ।
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