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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
___ गीता में परमात्म की प्राप्ति को ही साध्य कहा गया है। गीता में ब्रह्म अर्थात् परमात्मा को सम कहा गया है। गीता के अनुसार मुक्त वही कहलाता है, जिसका मन संसार में रहते हुए भी समभाव में रमण करता है, क्योंकि ब्रह्म भी निर्दोष एवं सम है।४६ ब्रह्म उसी समत्व में स्थित है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो समत्व में स्थित है, वह ब्रह्म में स्थित है; क्योंकि सम ही ब्रह्म है। गीता में ईश्वर को समत्व रूप से स्वीकार किया गया है। कृष्ण गीता के नवें अध्याय में कहते हैं कि सभी प्राणियों में मैं सम के रूप में स्थित है। गीता के तेरहवें अध्याय में बताया गया है कि वास्तविक ज्ञानी उसे ही कहा जाता है, जो सभी को समत्वपूर्वक देखता है। इस प्रकार गीता में समभाव या समत्वयोग की साधना पर ही सर्वाधिक बल दिया गया है।' गीता का कथन है कि जो सभी प्राणियों में समान रूप से स्थित परमेश्वर को समभाव से देखता है, वह अपने द्वारा अपना ही घात नहीं करता अर्थात् वीतराग स्वभाव या अपने समत्व को नष्ट नहीं होने देता।२ यही मुक्ति की प्राप्ति है। गीता के छठे अध्याय में परमयोगी के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। गीता के अनुसार परमयोगी वही है, जो सर्वत्र समत्व का दर्शन करता है।३ गीताकार का कथन है कि योग से युक्त आत्मा वही है, जो समदर्शी है। योगी की पहचान समत्व या समभाव से ही है। सच्चा योगी तो वही है, जिसने समत्व की साधना की है।
४६ 'इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।। १६ ।।' -गीता अध्याय अध्याय ५ । ५० 'समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। २६ ।।' -श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६ । 'समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।। २८ ।।' -वही अध्याय १३ । ___ 'समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। २६ ।।'
-वही। 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।' -वही अध्याय ६ । 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। २६ ।।'
-वही ।
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