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________________ ३२६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना होगी, तभी तुम समत्व में स्थिर हो पाओगे।८ आगे छठे अध्याय में बताया गया है कि मुक्त और शान्त वही है, जिसने हृदय से सभी वासनाओं को त्याग दिया है। वही परमेश्वर है।६ जो प्रबुद्ध और जाग्रत हो गया है, वह समत्वयोगी यही कहता है कि मेरी आत्मा को चुराने वाला दुष्ट चोर मेरा यह दूषित मन ही है। जो पुरुष समत्व बुद्धि के द्वारा सदैव के लिए वासनाओं का परित्याग करके ममता रहित हो जाता है, वही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। इस कारण वासना का त्याग ही परम कर्त्तव्य है। जो मनुष्य अहंकार से युक्त वासना को सहजतापूर्वक त्याग कर ध्येय अर्थात इच्छित वस्तु का सम्यक् रूप से परित्याग करके प्रतिष्ठित होता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त या समत्वयोगी कहलाता है। जिसमें अनासक्ति, निर्भयता, नित्यता, अभिज्ञता, समता, निष्कामता, निष्क्रियता, सौम्यता, धृति, निर्विकल्पता३ मैत्री, सन्तोष, मृदुता एवं मृदुभाषण आदि गुण निवास करते हैं; वही प्रज्ञावान् पुरुष समत्वयोगी है। ५.१.१ श्रीमद्भगवद्गीता में समत्वयोग गीता का मुख्य उपदेश भी समत्वयोग की साधना है; क्योंकि -वही । -वही अध्याय ६। - महोपनिषद् अध्याय ६ । ३८ 'प्रतिभासए स्वेदं न जगत्परमाथतः । ज्ञानद्दष्टौ प्रसन्नायां प्रबोधविततोदये ।। १०८ ।। 'हृदयात्संपरित्यज्य सर्ववासनपड्न्तयः । यस्तिष्ठति गतव्यग्रः समुक्तः परमेश्वरः ।।।।' 'प्रबुद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि दुष्टश्चोरोऽयमात्मनः । मनोनाम निहन्म्येनं मनसास्मि चिरं हृतः ।।२७।।' 'सर्व समतया बुद्धयायः कृत्वा वासनाक्षयम् । जहाति निर्ममो देहं नेयऽसों वासनाक्षयः ।।४४।।' 'अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः । तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्चते ।।४।।' 'निराशता निर्भयता नित्यता समता ज्ञता । निरीहता निष्क्रियता सौम्यता निर्विकल्पता ।।२६।।' 'धृतिमैत्री मनस्तुष्टि मृदुता मृदुभाषिता । हेयोपादेयनिर्मुक्ते ज्ञे तिष्ठन्त्य पवासनम् ।।३०।।' -वही । -वही । -वही । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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