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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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सुस्थिर बना लिया है, जो मुमुक्षु पुरुष हेय और उपादेय दोनों से उपर उठ गया है, वस्तुतः वही समत्वयोगी है, ब्रह्म है। जो मन से राग रहित हो गए हैं; अनासक्त और द्वन्द रहित तथा निरावलम्ब हो गए हैं; जो पिंजड़े से मुक्त पक्षी की तरह मोह से मुक्त हो गए हैं;३२ जिनके संशय शान्त हो गये हैं; जो प्रपंच और कौतक से विमक्त हैं; वे समत्वयोगी हैं। जो यह मानता है कि मैं तो सभी दोषों से रहित मात्र ब्रह्म स्वरूप हूँ; वही वास्तव में ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाला है - समत्वयोगी है।३४
महोपनिपषद् में आगे यह बताया गया है कि हाथ से हाथ को मलने से, दाँत से दाँत को पीसने पर तथा अंगों से अंगों को दबाने से ब्रह्म की उपलब्धि नहीं हो सकती।३५ जिसने इन्द्रिय-रूपी वैरियों को अपने वशीभूत कर लिया है तथा चित्त के अहंभाव को विनष्ट कर दिया है और जिसकी भोग लिप्साएँ समाप्त हो गई हैं; वही सच्चा समत्वयोगी है।३६ सभी संज्ञाओं और संकल्पों से रहित जो यह चिदात्मा अविनाशी या स्वात्मा आदि नामों से जानी जाती है; वही परम ब्रह्म या आत्मा है। महोपनिषद में आगे कहा गया है कि वास्तव में यह संसार अस्तित्त्व रहित है। यह तो मात्र आभासित होता है। जब तुम्हारी दृष्टि ज्ञान के प्रकाश से ओत-प्रोत
-वही ।
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'मननं त्यजतो नित्यं किंचित्परिणतं मनः । दृश्यं संत्यजतो हेयमुपादेयमुपेयुषः ।। ६२ ।।' 'निरागं निरूपासङ्ग निर्द्वन्द्वं निरूपाश्रयम् । विनिर्याति मनो मोहाद्विहङ्गः पंजरादिव ।। ६७ ।।' 'शान्तसंदेहदौरात्म्यं
गतकोतुकविभ्रमम् । परिपूर्णान्तरं चेतः पूर्णेन्दुरिव राजते ।। ६८ ।।' 'नाहं न चान्यदस्तीह ब्रह्मैवास्मि निराममम् ।
इत्थं सदसतोर्मध्याद्या पश्यति स पश्यति ।। ६६ ।।' ३५ 'हस्तं हस्तेन संपीडय दन्तैर्दन्तान्वि चूर्ण्य च ।
अंङ्गान्यअगैरिवा क्रम्य जयेदादौ स्वकं मनः ।। ७५ ।।' 'प्रगेचित्तदर्पस्य निगृही तेन्द्रिय द्विषः । पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः ।। ७७ ।।' 'सर्वसंकल्परहिता सर्वसंज्ञा सवैज्ञाविवर्जिता । सैषा चिदविनाशात्मा स्वात्मेत्यादिकृताभिथा ।। १०० ।।'
वही ।
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-वही ।
-वही ।
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