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________________ ३१० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना भगवान महावीर ने एक जीवन सूत्र दिया कि घृणा या द्वेष पाप से करो, पापी से नहीं। आज का बुरा, पतित, पापी और दुष्ट कल भला बन सकता है। इसके अगणित उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। वंकचूल, अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र, रोहणियां चोर आदि जैन इतिहास के तथा अंगुलीमाल, आम्रपाली आदि बौद्ध इतिहास के तथा अजामिल, वाल्मीकि, बिल्वमंगल आदि वैदिक इतिहास के उदाहरण प्रसिद्ध हैं। इनकी जीवन की पूर्व भूमिका जितनी निकृष्ट, भयंकर और निन्दनीय थी, उतनी ही उत्तर भूमिका अभिनन्दनीय और वन्दनीय बन गई। मनुष्य की आत्मा परमात्मा है, इसी कारण वह मूलतः पवित्र है। अतः दूसरों या विरोधियों के प्रति भी दुर्भाव या दौर्मनस्य नहीं रखना ही माध्यस्थ भावना है। ४.१२ समत्वयोग और ध्यान साधना - जैनदर्शन के अनुसार समत्व और ध्यान एक दूसरे के पर्यायवाची ही कहे जाते हैं। समत्व की साधना के बिना ध्यान की साधना सम्भव नहीं है। क्योंकि चंचल मन में उठते हुए विकल्पों के कारण चैतसिक आकुलता या अशान्ति बढ़ जाती है। यह आकुलता ही चेतना में उद्विग्नता या तनाव को उपस्थित करती है। चित्त की यह उद्विग्न या तनावपूर्ण स्थिति ही असमाधि या दुःख का कारण बनती है। इन चैतसिक तनावों या विक्षोभों को समाप्त करने के लिए अथवा निर्विकल्प और शान्त चित्त की उपलब्धि के लिए ध्यान साधना की आवश्यकता है। ध्यान साधना द्वारा ही व्यक्ति विभाव दशा से स्वभाव दशा को प्राप्त होता है। जैनाचार्यों ने ध्यान को साधना का शीर्ष माना है। जिस प्रकार शीर्ष या मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने पर मानव जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है, उसी प्रकार ध्यान के अभाव में जैनसाधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने जैन विद्या के विविध आयाम में बताया है कि कोई भी व्यक्ति तनाव या उद्विग्नता की स्थिति में जीना नहीं चाहता। उद्विग्नता चेतना की विभावदशा है। विभावदशा से स्वभाव में लौटने का प्रयत्न ही ध्यान है। इसी साधना से निर्विकार और निर्विकल्प समतायुक्त चित्त की उपलब्धि होती है और इसे ही समाधि या सामायिक कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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