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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना ३०६ चेष्टा करते हैं, उनके प्रति दुर्भावना, द्वेष या वैरभाव रखते है, उनकी निन्दा घृणा आदि करते हैं, ऐसे लोगों के प्रति भी राग-द्वेष से ऊपर उठकर माध्यस्थ भावना या समत्व की भावना ही रखना श्रेयस्कर है। व्यवहारसूत्र की टीका में माध्यस्थ का अर्थ इस प्रकार किया गया है :२०७ ‘मध्ये राग-द्वेषयोन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः सर्वत्रारागद्विष्टे।' जो राग और द्वेष के मध्य में रहता है, वह मध्यस्थ है, अर्थात् वह सर्वत्र राग-द्वेष से अलिप्त रहता है। आवश्यकसूत्र में समस्त प्राणियों पर समचित्त को माध्यस्थ कहा है : 'अत्युत्कटराग-द्वेषाविकलतया समचेतसो मध्यस्थाः। २०८ जो अत्यन्त उत्कृष्ट राग-द्वेष से रहित होकर समचित्त रहते हैं, वे माध्यस्थ हैं। जो अपने से द्वेष रखते हैं, दोषदर्शी हैं, विरोधी हैं, असहमत हैं, उन पर भी द्वेष न रखना, उपेक्षा भाव या उदासीनता या तटस्थता रखना माध्यस्थ भावना है। माध्यस्थ का अर्थ मौनशील भी किया गया है।०६ एक समभावी व्यक्ति है, वह दूसरे के दोषों को पूछने पर बोलता नहीं, मौन धारण श्रेयस्कर समझता है और चित्त का सन्तुलन बनाये रखता है। समतायोगी साधक की परीक्षा प्रतिकूलता में ही होती है। उसके समक्ष दुर्जन, दुष्ट, विरोधी या द्वेषी होते हुए भी वह अपने समत्वयोग को नहीं छोड़ता, उसके प्रति वैर, विरोध या द्वेष की भावना नहीं रखता, अपितु माध्यस्थ भावना में तटस्थ रहता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने बताया है कि माध्यस्थ का कार्य राग-द्वेष रहित होकर हंस की तरह नीर-क्षीर का विवेक रखना है।२१० २०६ २०७ व्यवहारसूत्र टीका । -उद्धृत् 'समत्वयोग : एक समन्वय-दृष्टि' पृ.१०८ -डॉ. प्रीतम सिंघवी । २०८ आवश्यकसूत्र । -वही । 'मध्यस्थो मौनशीलः स्वप्रतीतानपि कस्यापि दोषान । गृहणाति, तदग्रहणाद्धि प्रभूतलोकविरोधितया धर्मक्षति-सम्भवात् ।। -उद्धृत 'समत्वयोग : एक समन्वय-दृष्टि' पृ. १०८ डॉ. प्रीतम सिंघवी । २१० 'स्वस्व कर्म कृतवेशः स्वस्व कर्म भुजो नराः । न रागं, नापि च द्वेषं, मध्यस्थ्यस्तेषु गच्छति ।। १२४ ।।' -ज्ञानसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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