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________________ ३०२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना प्रयत्न करना चाहिये। संस्कृत भाषा में एक सुभाषित है - 'यद् ध्यायति तद् भवति' अर्थात् जो व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है, वह उसके तद्रूप बन जाता है। प्रमोद भावना की साधना करने वाले की दृष्टि सदैव गुणों की ओर रहती है। जो महान् आत्माओं तथा अपने आत्म विकास में आगे बढ़े हुए सत्पुरुषों के उज्ज्वल और पवित्र गुणों का चिन्तन करता है, वह वैसा ही बन जाता है अर्थात् उनके अनुरूप अपना जीवन बना लेता है। प्रमोद भावना की साधना से जब गुण ग्रहण की दृष्टि विकसित होती है तब व्यक्ति किसी भी कार्य में प्रवृत्त होते हुए भी गुणीजनों के गुणों का चिन्तन करता है एवं उन सद्गुणों के आचरण से अपने जीवन का विकास करता है और अगले जन्म में गुण ग्रहण की भावना के कारण उस गुण की प्रतिमूर्ति बन जाता है। ऐसे जैनदर्शन में अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे गजसुकुमार मुनि की क्षमा, धर्मरूचि मुनि की करुणा, भगवान महावीर का उग्रतप एवं कष्टसहिष्णुता, शालिभद्र की अपने पूर्व जन्म की दान भावना आदि गुणीजनों के प्रति आदर भाव से साधक का आत्मबल मजबूत होता है और उनके अनुरूप आचरण करने की भावना होती है। ___ समत्वयोग की साधना में प्रमोद भावना को सर्वाधिक बल दिया गया है, प्रमोद भावना से जीवन में सदैव ऊपर उठने की प्रेरणा मिलती है एवं उसकी समत्वयोग की साधना भी दृढ़ होती है। पाण्डवों में युधिष्ठिर को सर्वाधिक सम्मान मिला है, क्योंकि वे गुणग्राही थे। उन्होंने महाभारत में कहा है कि सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है, धर्म भ्राता है, दया मित्र है, शान्ति मेरी पत्नी है और क्षमा ही मेरा पुत्र है। ये गुण ही मेरे सच्चे बन्धु हैं।६६ __ जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ गुणानुरागकुलक में बताया गया है कि जिस मनुष्य के हृदय में उत्तम गुणों के प्रति सम्मान रहता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है। देव भी आकर उन्हें नमन १६६ 'सत्यं माता-पिता ज्ञानं, धर्मों भ्राता दया सखा, शान्ति पत्नि क्षमा पुत्रः षडेते मम बाँधवाः ।।' -महाभारत (उद्धृत 'समत्वयोग : एक समन्वय-दृष्टि पृ. ६३ - डॉ प्रीतम सिंघवी) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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