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________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना से मान का, ऋजुता से माया तथा निःस्पृहता से लोभ का निग्रह करना चाहिये । उत्तराध्ययनसूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुप्ति, १६१ पांच समिति, दश यतिधर्म, बारह भावना, परीषह जय और पांच प्रकार के चारित्र के परिपालन को संवर कहा गया है । संवर आसव का प्रतिपक्षी है। वह कर्मों के आगमन को रोकने की प्रक्रिया है । १६२ ज्ञान और वैराग्यपरक चिन्तनपूर्वक अपने उपयोग को मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों से हटाकर अपने आप में स्थिर होना ही संवर भावना है। संवर भावना सुख रूप है, क्योंकि इससे भव परम्परा समाप्त होती है । संवर और समत्व एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। क्योंकि संवर में कषाय जनित उद्वेग समाप्त हो जाते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि : , १६३ 'संपद्यते संवर एष साक्षाच्चदात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् । स भेदविज्ञानत एवं तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ।।' शुद्धात्मतत्त्व में अवस्थिति ही साक्षात् संवर है । शुद्धात्मतत्त्व में अवस्थिति भेद विज्ञान से ही होती है । भेद विज्ञान से राग, द्वेष एवं मोहजन्य विषय - विकार समाप्त हो जाते हैं और उज्ज्वल ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । १६४ उत्तराध्ययनसूत्र में संवर के स्थान पर संयम को ही आसव निरोध का कारण कहा गया है। १६५ संवर अर्थात् शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं का यथाशक्य निरोध करना और आत्मा में प्रवेश करनेवाले कर्म-वर्गणा १६१ 'उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । २८७ १६२ मायं चडज्जव-भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। ३६ ।।' -दशवैकालिकसूत्र τι 'आस्रवनिरोधः संवरः ।। १ ।। सगुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ।। २ ।। ' - तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ ( उमास्वाति ) । १६३ समयसार कलश १२६ । १६४ ' अण्णाणमओ भावो अणाणिओ कुणदि तेण कम्माणि । णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ।। १२७ ।। ' १६५ 'संजमेणं भंते जीवे किं जणयइ ! संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ ।। २६ ।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only - समयसार । - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २६ । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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