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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
आत्मा की शुभाशुभ भावरूप आस्रव क्रिया से मुक्त होना ही आनवानुप्रेक्षा के चिन्तन का वास्तविक फल है ।
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कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जो पुरुष उपशम परिणामों में लीन होकर पूर्वकथित मिथ्यात्वादि भावों को हेय मानता हुआ छोड़ता है, उसकी ही आस्रव भावना होती है । इस प्रकार जानता हुआ भी जो त्यागने योग्य परिणामों को नहीं छोड़ता है, उसका आस्रव भावना सम्बन्धी सम्पूर्ण चिन्तन निरर्थक है ।
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पातंजलि योगशास्त्र के अनुसार भी ‘अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः' अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से भी चित्तवृत्तियों का निरोध हो सकता है ।'
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अतः आनव के हेतुओं से बचते हुए संवर की दिशा में प्रवृत्त होना चाहिये । आस्रव भावना का मूल प्रयोजन समत्व से विचलन के कारणों को जानकर उनसे दूर रहने का प्रयत्न करना है ।
८. संवर भावना
कर्मों के आगमन (आस्रव) के मार्ग को निरूद्ध करना संवर है । दुष्प्रवृत्तियों के द्वारों को बन्द करने का चिन्तन करना संवर भावना है । कर्मबन्ध का मूल कारण आसव है, उसका निरोध करना संवर है । तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि 'आस्रव निरोधः संवरः ' अर्थात् आस्रव का निरोध संवर है । " " संवर मोक्ष का मूल कारण तथा साधना समत्व का प्रथम सोपान है । संवर शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'वृ' धातु का अर्थ रोकना या निरोध करना है ।
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दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि क्षमा से क्रोध का, मृदुता
'एदे मोहयभावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो । हेयं ति मण्णमाणो, आसव अणुपेहणं तस्स ।। ६४ ।। एवं जाणंतो वि हु, परिचयणीये वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा, सव्वा वि णिरत्थया होदि ।। ६३ ।।
१५८ पातंजलि योगशास्त्र ८ ।
१५६ तत्त्वार्थसूत्र ६/१ ।
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'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ३८६।
- डा. सागरमल जैन ।
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- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
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