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________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना आत्मा की शुभाशुभ भावरूप आस्रव क्रिया से मुक्त होना ही आनवानुप्रेक्षा के चिन्तन का वास्तविक फल है । २८६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जो पुरुष उपशम परिणामों में लीन होकर पूर्वकथित मिथ्यात्वादि भावों को हेय मानता हुआ छोड़ता है, उसकी ही आस्रव भावना होती है । इस प्रकार जानता हुआ भी जो त्यागने योग्य परिणामों को नहीं छोड़ता है, उसका आस्रव भावना सम्बन्धी सम्पूर्ण चिन्तन निरर्थक है । १५७ पातंजलि योगशास्त्र के अनुसार भी ‘अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधः' अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से भी चित्तवृत्तियों का निरोध हो सकता है ।' १५८ अतः आनव के हेतुओं से बचते हुए संवर की दिशा में प्रवृत्त होना चाहिये । आस्रव भावना का मूल प्रयोजन समत्व से विचलन के कारणों को जानकर उनसे दूर रहने का प्रयत्न करना है । ८. संवर भावना कर्मों के आगमन (आस्रव) के मार्ग को निरूद्ध करना संवर है । दुष्प्रवृत्तियों के द्वारों को बन्द करने का चिन्तन करना संवर भावना है । कर्मबन्ध का मूल कारण आसव है, उसका निरोध करना संवर है । तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है कि 'आस्रव निरोधः संवरः ' अर्थात् आस्रव का निरोध संवर है । " " संवर मोक्ष का मूल कारण तथा साधना समत्व का प्रथम सोपान है । संवर शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'वृ' धातु का अर्थ रोकना या निरोध करना है । १५६ १६० दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि क्षमा से क्रोध का, मृदुता 'एदे मोहयभावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो । हेयं ति मण्णमाणो, आसव अणुपेहणं तस्स ।। ६४ ।। एवं जाणंतो वि हु, परिचयणीये वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा, सव्वा वि णिरत्थया होदि ।। ६३ ।। १५८ पातंजलि योगशास्त्र ८ । १५६ तत्त्वार्थसूत्र ६/१ । १६० 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ३८६। - डा. सागरमल जैन । १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only - कार्तिकेयानुप्रेक्षा । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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