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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
अध्रुव को अनित्य, जहाँ कोई शरण नहीं उसे अशरण, भवभ्रमण को संसार, जहाँ कोई दूसरा नहीं उसे एकत्व, जहाँ सबसे भिन्नता उसे अन्यत्व, मलिनता को अशुचि, कर्मों के झरने को निर्जरा, जिसमें छः द्रव्य पाये जाएँ वह लोक, संसार से उद्धार करे उसे धर्म और अति कठिनता से प्राप्त हो उसे बोधिदुर्लभ भावना कहते हैं ।
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जहाँ तक समत्वयोग की साधना का प्रश्न है, उसमें इन बारह भावनाओं के चिन्तन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन बारह भावनाओं के चिन्तन से समत्वयोग की साधना निर्मल बनती है । व्यक्ति की आसक्ति टूटती है। रागात्मकता समाप्त होती है। अतः समत्व की साधना फलवती होती है ।
9. अनित्य भावना
प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही नित्यानित्यात्मक है । नित्यानित्यात्मक वस्तु का असंयोगी द्रव्यांश नित्य एवं संयोगी पर्यायांश अनित्य अंश होता है । अनित्य भावना में संयोगी पर्यायांश के सम्बन्ध में ही चिन्तन किया जाता है कि “मैं द्रव्य रूप से नित्य जीवद्रव्य हूँ । उत्पन्न होना तथा समाप्त होना, यह पर्याय का स्वभाव है, इसमें हर्ष और विषाद कैसा? यह शरीर जीव और पुद्गल की संयोग जनित पर्याय है। धन धान्यादिक पुद्गल परमाणुओं की स्कन्ध पर्याय हैं। इनमें संयोग और वियोग नियम से निश्चित है । फिर भी अनादिकाल से इस आत्मा ने परपदार्थों और पर्यायों में ही एकत्व स्थापित कर रखा है। ममत्व कर रखा है। उन्हीं को सर्वस्व मान रखा है। उन्हीं पर दृष्टि केन्द्रित कर रखी है। उन परिणामों के कारण जीव अनन्त दुःख सह रहा है । क्योंकि उसका चित्त उद्वेलित बना हुआ है और पुरुषार्थ भी उल्टी दिशा में गति कर रहा है
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ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि हे मूढ़ प्राणी ! यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि इस संसार में जो वस्तुओं का समूह है, वे पर्यायें क्षण-क्षण में नाश होने वाली हैं । इसका तुझे ज्ञान होते हुए भी अजान बन रहा है, यह तेरा कैसा आग्रह है? यह
७६ 'वस्तु जातमिदं मूढ प्रतिक्षणविनश्वरम् ।
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जानन्नपि न जानसि ग्रहः कोऽयमनौषथः ।। १४ ।।
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- ज्ञानार्णव सर्ग २ |
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