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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
कराता है। हम यह जानते हैं कि हमारी विषमता या विभाव का कारण राग-द्वेष की वृत्तियाँ है। इनमें भी राग ही मुख्य कारण होता है। राग के निमित्त से ही द्वेष का जन्म होता है। जब तक राग का प्रहाण नहीं होता है, तब तक जीवन में समभाव का प्रकटीकरण ही नहीं होता है। समत्वयोग की साधना का मुख्य प्रयोजन तो राग को समाप्त करना ही है।
जब व्यक्ति सांसारिक पदार्थों की अनित्यता अथवा अपनी अशरणता या असहायता का चिन्तन करता है, तब उसकी आसक्ति या रागभाव टूटता है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने समभाव की साधना के लिये अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं को आवश्यक माना। भावनाओं के चिन्तन को भावनायोग कहा जाता है, जो समत्वयोग का ही पर्यायवाची है। भावनाविहीन धर्म शून्य है। वास्तव में भावना ही परमार्थ स्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक कहा गया है और तीर्थंकरों ने भी भाव को ही सम्यक्त्व का मूल मंत्र बताया है। कोई भी पुरुष कितना ही दान करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक मुनि धर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं की उद्भावना नहीं होती, तो उसकी समस्त क्रियाएँ उसी प्रकार निष्फल होती हैं, जिस प्रकार से धान्य के छिलके को बोना निष्फल है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैं कि चाहे व्यक्ति श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही उसके विकास में कारणभूत है। भाव रहित अध्ययन और श्रवण से क्या लाभ?७२।
जैन परम्परा में बारह भावनाओं को साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में वारस्सानुवेक्खा तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा नामक दो स्वतन्त्र ग्रन्थ निर्मित हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में बारह भावनाओं का एक साथ उल्लेख मरणसमाधि ग्रन्थ में मिलता है।७३ __ भावना का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है 'भाव्यतेऽनेन भावना' अर्थात्
७० प्राकृतसुक्तिसरोज भावनाधिकार ३, १६ । ७१ सुक्ति संग्रह ४१ ।
भावपाहुड ६६ । मरणसमाधि गाथा ५७२-७३ पत्र १३५ ।
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