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________________ २६० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना मोक्ष आत्मपूर्णता की अवस्था है और यह आत्मपूर्णता तभी उपलब्ध होती है, जब आत्मा राग-द्वेष रूप विभाव पयार्यों से ऊपर उठकर समत्व रूप स्वभाव पर्याय में अवस्थित रहे। जैसा कि हमने पूर्व में देखा है, समत्व को आत्मा का स्वभाव कहा गया है और राग-द्वेष कषाय आदि आत्मा की विभावदशा है। विभावदशा को समाप्त करके शाश्वत् रूप से स्वभावदशा में रहना ही मोक्ष कहा गया है। इसी सन्दर्भ में आनन्दघनजी ने कहा है कि 'एक ठानेकिम रहै, दूध कांजी थोक', जैसे दूध और कांजी का समूह एक स्थान पर नहीं रह सकता है, ठीक वैसे ही स्वभाव और विभाव रूप विपरीत आत्मा एक स्थान पर नहीं रह सकती। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि मोह और क्षोभ से रहित समत्वपूर्ण अवस्था को ही मोक्ष कहा जाता है, तो समत्व और मोक्ष एक दूसरे के पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं। समत्व एक ओर मोक्ष का साधन है, तो दूसरी ओर वह आत्मा मोक्ष ही है। क्योंकि जैनदर्शन में साधक, साध्य और साधना में तादात्म्य माना गया है। इस सम्बन्ध की विशेष चर्चा हम इस शोध प्रबन्ध के तीसरे अध्याय में कर चुके हैं। समत्व एक ओर आत्मा का साध्य है, तो दूसरी ओर आत्मा का स्वभाव लक्षण होने के कारण साधक भी है। साथ ही साधक के कारण साध्य को प्राप्त करने का जो प्रयास है, उसे सामान्य अर्थ में साधना कहते हैं। वह भी सामायिक या समत्व ही है। जैन दार्शनिकों ने यह माना है कि आत्मा की वीतराग या समत्वपूर्ण अवस्था ही मोक्ष है। मोक्ष ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो हमारे स्वभाव में अनुपस्थित थी। उसे तो जैनाचार्यों ने स्वरूपोलब्धि कहा है। यदि आत्मा का स्वरूप समत्व है, तो मोक्ष समत्व के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष या मुक्ति की अनिवार्य शर्त वीतरागता की उपलब्धि है और वीतरागता तथा समत्व एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। राग-द्वेष यह आत्मा की विभाव दशा है। राग-द्वेष से ऊपर उठना अर्थात् विभाव से स्वभाव की ओर जाना यह साधना है और राग-द्वेष की समाप्ति यह साध्य है। इस प्रकार वीतरागता ही साध्य है और जो - - ६७ भगवतीसूत्र १/६/२२८ । आनन्दघन ग्रन्थावली पद ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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