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________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना संघर्ष का मूल कारण हैं। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है और उसके परिणामस्वरूप घृणा और विद्वेष की भावनाएँ बलवती होती हैं, जो सामाजिक संघर्षों का कारण बनती हैं। व्यक्ति अपने अहंकार की पुष्टि समाज में करता है । उस अहंकार को पोषण देने के लिये अनेक मिथ्या विश्वासों का समाज में सृजन होता है । यहीं वैचारिक संघर्ष का जन्म होता है । ऊँच-नीच का भाव, धार्मिक मतान्धता और विभिन्नवाद उसी के परिणाम हैं । जिस प्रकार वैयक्तिक स्वार्थ व्यक्तियों के मध्य संघर्षों का कारण बनता है, उसी प्रकार से जातीय स्वार्थ, साम्प्रदायिक स्वार्थ और राष्ट्रीय स्वार्थ, समाजों, राष्ट्रों और धर्म सम्प्रदायों के मध्य संघर्षों को जन्म देते हैं । जब समृद्ध राष्ट्रों और धर्म सम्प्रदायों में अपने प्रभाव क्षेत्रों को बढ़ाने की प्रवृत्ति विकसित होती है, तो वे दूसरों की स्वतन्त्रता का अपहार करने का प्रयत्न करते हैं । वस्तुतः जब आधिपत्य की दृष्टि या शासित करने की वृत्ति विकसित होती है, तो दूसरों के अधिकारों का हनन प्रारम्भ हो जाता है । २३२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना का जो निर्देश दिया गया है, वह केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है। उसका सम्बन्ध समाजों, राष्ट्रों और धर्म सम्प्रदायों से भी है । समत्वयोग की साधना न केवल वैयक्तिक साधना है, अपितु वह सामुदायिक साधना भी है । विभिन्न समाजों, धर्म सम्प्रदायों और राष्ट्रों के लिये आवश्यक है कि वे सामुदायिक रूप से समत्वयोग की साधना में प्रवृत्त हों । सामाजिक संघर्षों या सामाजिक विषमताओं का एक कारण वर्ण व्यवस्था भी है । अतः सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक हैं। क्योंकि इस वर्ण व्यवस्था के कारण सामाजिक जीवन में विवाद उत्पन्न होते हैं। वर्ण व्यवस्था से ऊँच-नीच की भावना पनपती है । यदि वर्ण व्यवस्था का आधार वैयक्तिक योग्यताओं के आधार पर कार्यों या श्रम का विभाजन हो, तो वह इतनी बुरी नहीं है । क्योंकि जब तक वैयक्तिक योग्यताओं में वैभिन्य है, सामाजिक व्यवस्था में कार्य-विभाजन या श्रम विभाजन तो करना ही होगा । किन्तु, जब वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर स्वीकार कर ली जाती है, तब वह वर्ग संघर्ष को T Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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