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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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व्यवहार में कहीं न कहीं अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का प्रकटन होना चाहिये। तभी उसकी वैयक्तिक साधना की सार्थकता है। यह सत्य है कि समत्वयोग की वैयक्तिक साधना और सामाजिक साधना के क्षेत्र अलग-अलग हैं। किन्तु ये एक दूसरे से असन्तृप्त नहीं हैं। क्योंकि हमारा व्यक्तित्व ही ऐसा है, जिसमें समाज निरपेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति निरपेक्ष समाज की कल्पना नहीं कर सकते। व्यक्ति को वैयक्तिक स्तर और सामाजिक स्तर दोनों पर जीना होता है। अतः उसके लिये यह आवश्यक है कि वह समत्वयोग की वैयक्तिक साधना के साथ-साथ उसकी सामाजिक साधना भी करे अर्थात् उसकी वृत्तियों के परिवर्तन के साथ-साथ उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आना चाहिये।
जिस प्रकार समत्व की वैयक्तिक साधना राग या आसक्ति से ऊपर उठकर की जा सकती है, उसी प्रकार समत्व की सामाजिक साधना भी राग या आसक्ति से ऊपर उठकर ही सम्भव है। रागात्मक वृत्ति के कारण व्यक्ति समत्व के पथ से विचलित हो पतनोन्मुखी हो जाता है। जब तक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि होंगे, तब तक समत्व की सामाजिक साधना सफल नहीं हो सकती है। समत्व की वैयक्तिक साधना में रागात्मक या ममत्व बुद्धि का पूर्णतः विसर्जन हो सकता है। लेकिन क्या समत्व का सामाजिक साधना में भी परित्याग किया जा सकता है? स्वहित की वृत्ति चाहे व्यक्ति के प्रति सघन हो, चाहे परिवार के प्रति सघन हो, तो वह सामाजिक साधना के लिये विरोधी ही होगी। उससे सामाजिक साधना फलित नहीं हो सकती है और चेतना का विकास भी नहीं हो सकता। सभी के प्रति समभाव से ही समत्व की वैयक्तिक साधना एवं सामाजिक साधना सफल हो सकती है। सामाजिक साधना त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ी होती है और सम्पूर्ण मानव जाति के सुमधुर सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है। अतः वीतरागता या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक साधना के लिये वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है। जब सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट के कारण उपस्थित होते
२ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १५३ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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