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________________ - - * मंगल कामना * साध्वी प्रियवंदनाश्रीजी द्वारा लिखित नव निर्मित शोधग्रंथ के प्रकाशन के स्वर्णिम पलों में मैं प्रसन्नचित हूँ। इन्होंने 'जैन दर्शन में समत्व योग : एक समीक्षात्मक अध्ययन' ग्रंथ का सर्जन कर अभिवंदनीय कार्य किया है। जैन दर्शन में समत्वयोग यह एक विशिष्ट विषय है। समत्व वही है जो जैनत्व का दूसरा पर्याय है। समत्व के बिना मोक्ष साधना हमेशा अपूर्ण ही रहती है क्योंकि समत्वयोग ही मोक्ष का मूलाधार है। मुनि जीवन के केन्द्र स्थान में 'समत्वयोग' रहा हुआ है। श्री कल्पसूत्र में भी उवसमसारं खु सामणं' कह कर इस साम्यभाव को प्रधानता दी गई है। साम्यभाव से ही मन की स्थिति समाधानमय, आश्वासनजनक एवं वैराग्य मूलक बनती है। वाचिक आन्दोलन एवं कायिक चेष्टा में भी साम्य भाव से संतुलन समन्वय एवं निष्पाप प्रवृत्ति बनी रहती है। योगसार नामक ग्रन्थ में भी कहा है - साम्यं मानस भावेषु, साम्यं वचन वीचिषु। साम्यं कायिक चेष्टा सु, साम्यं सर्वत्र सर्वदा।। मन-वचन-काया के हर योग में, हर वृत्ति-प्रवृत्ति में, हर क्षेत्र एवं हर काल में साम्य भाव धारण करना वही साधक जीवन की साधना है। जैन दर्शन की मुख्य साधना-पद्धति सामायिक भाव में निहित है। विशेषावश्यक महाभाष्य जैसे ग्रन्थों में कहा गया है कि सिर्फ सामयिक के एक पद के अवलंबन से अनंत आत्माएँ भूतकाल में मोक्ष में गई हैं एवं भविष्य में जायेगी। सामायिक में प्रधान रूप से समत्य योग की साधना है। समत्व यानि समतुल्यचित्त वृत्ति..। ओ मान-अपमान, जयपराजय, इष्ट-अनिष्ट, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र, लाभ-हानि आदि सर्व परिस्थिति में मन:स्थिति को समभाव-तुल्य भाव में ले जाती है। __ 'जैन दर्शन में समत्वयोग' इस विषय पर विदुषी साध्वी श्री प्रियवंदनाश्रीजी ने विशद् विवेचना पूर्वक आलेखन किया है, अत: उन्हें मैं हार्दिक साधुवाद देता हूँ। जडवाद-जमानावाद के बढ़ते प्रवाह में श्रृंगार रसजनक एवं सदाचार को नष्ट करने वाले साहित्य का धूम प्रचार हो रहा है, ऐसे समय में सत्साहित्य का प्रचार अत्यावश्यक है। मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि ऐसे और भी कई निबंध श्रेणियों का सर्जन साध्वी प्रियवंदनाश्रीजी द्वारा होता रहेगा जिससे चतुर्विध संघ में भी स्वाध्याय का सुमधुर कुंजन एवं चिन्तन की गहराई में आत्मा का आलोक सुविस्तृत हो । यही शुभकामना। आधोई (कच्छ), 2007 - पं. कीर्तिचन्द्र विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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