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________________ १६० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना प्रवृत्तियों का परित्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। प्रकारान्तर से भगवतीसूत्र में प्रत्याख्यान के दस भेद वर्णित हैं।०८ १. अनागत : पर्व की तपसाधना को पूर्व में ही कर लेना; २. अतिक्रान्त : पर्व तिथि के पश्चात् पर्व तिथि का तप करना; ३. कोटि सहित : पूर्व गृहीत नियम की अवधि समाप्त होते ही बिना व्यवधान के भविष्य के लिये प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेना; ४. नियन्त्रित : विघ्न बाधाओं के होने पर पूर्व संकल्पित व्रत आदि की प्रतिज्ञा कर लेना; ५. साकार (सापवाद); ६. निराकार (निरपवाद); ७. परिमाणकृत (मात्रा सम्बन्धी); ८. निरवशेष (पूर्ण); ६. सांकेतिक : संकेत चिन्ह से सम्बन्धित; और १०. अद्धा प्रत्याख्यान : समय विशेष के लिये किया गया प्रत्याख्यान। आचार्य भद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का महत्त्व बताते हुए कहा है कि प्रत्याख्यान करने से संयम होता है। संयम से आस्रव का निरोध होता है और आसव-निरोध से तृष्णा का क्षय होता है।०६ तृष्णा के नाश से अनुपम उपशमभाव अर्थात् माध्यस्थ्य परिणाम होता है और अनुपम उपशम भाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है।” उत्तराध्ययनसूत्र में ६ प्रकार के उत्कृष्ट प्रत्याख्यानों तथा उनसे होने वाले कषायमुक्ति और कर्ममुक्ति की उपलब्धि का स्पष्ट निरूपण किया गया है। वह इस प्रकार है : १. संयोग; २. उपधि; ३. आहार; ४. कषाय; -भगवतीसूत्र ७/२ । ०८ 'अणागय मइक्वंतं कोऽसहियं निंदियं चेव, सागरमणागारं परिमाण कडं निरवसेस । संकेयं चेव अद्धाण-पच्चक्खाणं भवे दसहा ।। १०६ 'पच्चक्खाणंमिकए आसवदाराई हुंति पिहियाइं ।। ___आसव वुच्छेएण, तण्हा-वुच्छेयणं होइ ।। १५६४ ।।' ११० 'तण्हा-वोच्छेदेण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो, पच्चखाणं हवइ सुद्धं ।। १५६५ ।।' -आवश्यकनियुक्ति । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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