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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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लक्षण अभिव्यक्त नहीं हुए; यद्यपि ये गुण भी उसकी सत्ता में निहित हैं। इसलिये साधक आत्मा वही है, जो अपनी आत्मिक शक्तियों और अपने समत्वगुण से परिचित तो है, किन्तु अभी उन शक्तियों को प्रकट नहीं कर पाई है। जो अपनी इन आत्मिक शक्तियों या गुणों को प्रकट करना चाहता है, उसे साधक कहा जाता है।
एक अन्यापेक्षा से जैनदर्शन में आत्मा को राग-द्वेष आदि से रहित माना गया है; क्योंकि ये उसके स्वाभाविक गुण नहीं हैं, अपितु विभावदशा के सूचक हैं। किन्तु संसार अवस्था में आत्मा राग-द्वेष, विषय-कषाय एवं इच्छा-आकांक्षा से युक्त होती है। यह उसके विचलन की अवस्था हैं। जो आत्मा राग-द्वेष एवं विषय-कषाय जन्य तनावों को समाप्त करके अपने को समभाव या समत्व में स्थिर करना चाहती है; उसे ही साधक आत्मा कहा जाता है। संक्षेप में कहें तो जो व्यक्ति अपने में निहित अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट करना चाहता है; राग-द्वेष, विषयों और कषायों से ऊपर उठकर वीतरागदशा को प्राप्त करना चाहता है अथवा इच्छा-आकांक्षाजन्य तनावों को समाप्त करके समभाव में स्थित होना चाहता है, वही समत्वयोग का साधक माना जाता है।
३.४ समत्वयोग की साधना के विभिन्न चरण
जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, समत्वयोग की साधना राग-द्वेष और मोह तथा क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों से ऊपर उठने की साधना है; क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ के तत्त्व ही हमारे चित्त के समत्व को भंग करते हैं। अतः साधक को समत्वयोग की साधना के लिये इनसे ऊपर उठने की आवश्यकता है। समत्वयोग का साधक इनसे किस क्रम से ऊपर उठ सकता है, इसका विवेचन जैनदर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त में हमें विस्तार से मिलता है। जैनदर्शन का यह मानना है कि व्यक्ति के बन्धन का मूल कारण तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाएँ ही हैं। अतः समत्वयोग की साधना में कषायों से ऊपर उठना आवश्यक है। जैन कर्म-सिद्धान्त बन्धन रूप आठ कर्मों में
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