SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना हैं : (१) क्रोध; (२) मान; (३) माया; और (४) लोभ। इन कषायों के मूल में भी राग-द्वेष के तत्व रहे हुए हैं। आचार्य हरिभद्र ने मोक्ष की प्राप्ति का जो निकटतम साधन बताया है, उसे वे सामायिक या कषाय-मुक्ति कहते हैं। वे लिखते हैं कि जो भी समभाव की साधना करेगा, वह मुक्ति को प्राप्त करेगा। अन्यत्र वे यह भी कहते हैं कि कषायों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति हैं। कषायों से ऊपर उठना ही सामायिक की साधना है और इसे ही सामायिक या समत्वयोग की साधना भी कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम यह पाते हैं कि हमारी चेतना के समत्व को भंग करनेवाला मूल तत्व राग है। राग के कारण ही द्वेष का जन्म होता है। वस्तुतः जहाँ-जहाँ राग है, वहाँ-वहाँ व्यक्त या अव्यक्त रूप में द्वेष रहा हुआ है और ये राग-द्वेष के तत्व ही क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों को जन्म देते हैं। कषायों की उपस्थिति में सामायिक चारित्र का परिपालन सम्भव नहीं होता है। जैनदर्शन के कर्म सिद्धान्त में यह बताया गया है कि जब तक व्यक्ति के जीवन में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की सत्ता रहती है अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ के तत्व अपने तीव्रतम रूप में उपस्थित होते हैं, तब तक उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार जब तक व्यक्ति के अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ की वह स्थिति, जिस पर नियन्त्रण करना सम्भव न हो, समाप्त नहीं होती; तब तक वह गृहस्थ धर्म का भी परिपालन नहीं कर पाता। मुनि जीवन के लिए तो कहा गया है कि जब तक व्यक्ति कषायों पर नियन्त्रण की क्षमता पूर्णतः विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह मुनि जीवन के योग्य नहीं बनता है। सामायिक चारित्र की साधना मुनि जीवन का प्रथम चरण है। वह तभी सम्भव है, जब व्यक्ति कषायों के व्यक्त होने की सम्पूर्ण सम्भावनाओं को निरस्त कर दे। कषायों की उपस्थिति में सामायिक की साधना सम्भव नहीं होती और मुनि जीवन में भी प्रवेश सम्भव नहीं होता। सामायिक चारित्र के परिपालन के लिए भी कषायों से ऊपर उठना आवश्यक है; क्योंकि ये कषाय हमारे चैतसिक समत्व को भंग करते हैं। जब तक कषाय की अभिव्यक्ति होती रहती है, तब तक सामायिक की साधना सम्भव नहीं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy