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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ३ श्रेणी के साधक हैं। ४. निर्ग्रन्थ : जिनकी मोह और कषाय की ग्रन्थियाँ क्षीण हो । चुकी हैं। इनके जीवन में समत्व प्रतिफलित होता है। ५. स्नातक : जिनके समग्र घाती कर्म क्षय हो चुके हैं और __ वीतराग अवस्था को प्राप्त हैं, वे उच्च कोटि के श्रमण हैं। इनके जीवन में समत्व पूर्णतः अभिव्यक्त होता है। क्योंकि जहाँ वीतरागता है, वहीं पूर्ण समत्व है। जैन श्रमण के मूलगुण जैन परम्परा में श्रमण जीवन की कुछ आवश्यक योग्यताएँ स्वीकार की गई हैं। उन्हें मूल गुणों के नाम से जाना जाता है।३२ दिगम्बर परम्परा के मूलाचारसूत्र में श्रमण के अट्ठाइस मूलगुण माने गये हैं। श्वेताम्बर परम्परा में श्रमण के सत्ताइस मूल गुण माने गये हैं। पंचमहाव्रत पंचमहाव्रत श्रमण जीवन के मूलभूत गुणों में माने गये हैं। ये पंचमहाव्रत इस प्रकार हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पांचों व्रत गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए निहित हैं। अन्तर यह है कि गृहस्थ जीवन में उसका आंशिक रूप से पालन होता है। श्रमण जीवन में उनका पालन पूर्ण रूप से करना होता है। पंचमहाव्रत श्रमण जीवन के लिए विशेष रूप से बताये गए हैं - जबकि वे ही गृहस्थ जीवन के सन्दर्भ में अणुव्रत कहे गये हैं। श्रमण इन पांचों महाव्रतों का पालन पूर्णरूप से करता है। विशेष परिस्थितियों में ही इन नियमों के परिपालन में अपवाद मार्ग का आश्रय ले सकते हैं। सामान्यतः इन पंचमहाव्रतों का पालन १३१ (क) स्थानांगसूत्र ५/३/४४५ । (ख) 'पुलाक बकुश कुशील निग्रंथ स्नातका निर्ग्रन्थाः ।' -तत्त्वार्थसूत्र ६/४६ । (ग) 'पुलाकः सर्वशास्त्रज्ञो वकुशो श्व्यबोधकः । कुशीलः स्तोकचारित्रो निर्ग्रन्थो ग्रन्थिहारकः ।। २१५ ।।' -रत्नकरण्डक श्रावकाचार । (क) मूलाचार १/२-३ (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/४८ । _ 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' भाग ६, पृ. २२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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