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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
अपेक्षा संयम (साधनामय जीवन) के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में यह स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि गृहस्थ जीवन में रहकर भी निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। श्वेताम्बर कथा साहित्य में भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी के गृहस्थ जीवन से सीधे मोक्ष प्राप्त करने तथा भरत द्वारा श्रृंगार-भवन में ही कैवल्य (आध्यात्मिक पूर्णता) प्राप्त कर लेने की घटनाएं भी यही बताती हैं कि गृहस्थ जीवन से सीधे भी साधना के अन्तिम आदर्श की उपलब्धि सम्भव है।° दिगम्बर परम्परा स्पष्ट रूप से गृहस्थ की मुक्ति का निषेध करती है। उसके अनुसार गृहस्थ मुनि धर्म को स्वीकार करके ही उस भव या भवान्तर में मुक्त हो सकता है। साधना की कोटि की दृष्टि से गृहस्थ उपासक की भूमिका वीरताविरत की मानी गई है। उसमें आंशिक रूप से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों है। लेकिन जैन साधना में आंशिक निवृत्तिमय प्रवृत्ति का यह जीवन भी सम्यक् है और मोक्ष की ओर ले जाने वाला माना गया है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि सभी पाप चरणों से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरति व अविरति है। परन्तु यह आरम्भ नो-आरम्भ (अल्प
आरम्भ) का स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी एकान्त सम्यक् एवं साधु है।'
श्रमण और गृहस्थ जीवन की साधना में अन्तर :
पूर्व में हमने गृहस्थ और श्रमण जीवन की साधना के अन्तर का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया था। अब यहाँ पर उसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। सम्यग्दर्शन की दृष्टि से गृहस्थ
और श्रमण की साधना में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। जहाँ तक सम्यग्ज्ञान की साधना का प्रश्न है, साधकों में ज्ञानात्मक योग्यता का अन्तर हो सकता है। लेकिन यह अन्तर भी गृहस्थ और श्रमण
उत्तराध्ययनसूत्र ५/२० । वही ३६/४६। 'इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सालिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।। ४६ ।।' सूत्रकृतांगसूत्र २/२/३६ ।
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३६ ।
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