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________________ ७४ की आँशिक साधना करता है । जैनागमों में गृहस्थ साधक के लिए श्रावक शब्द का प्रयोग मिलता है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने विस्तार से चर्चा की है। यहाँ हम उसे आँशिक रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं : " 'श्रावक शब्द का प्राकृत रूप 'सावय' है, जिसका एक अर्थ बालक या शिशु भी होता है अर्थात् जो साधना के क्षेत्र में अभी बालक है, प्राथमिक अवस्था में है, वह श्रावक है । भाषा शास्त्रीय विवेचना में श्रावक शब्द के दो अर्थ मिलते हैं। पहले अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति 'श्रु' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'सुनना' अर्थात् शास्त्र या उपदेशों को श्रवण करने वाला वर्ग श्रावक कहा जाता है । दूसरे अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति 'श्रा पाके' से बतायी जाती है; जिसके आधार पर इसका संस्कृत रूप श्रापक बनता है उसका प्राकृत में सावय हो सकता है । श्रापक का अर्थ है जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना - जो भोजन पकाता है। गृहस्थ भोजन के पचन, पाचन आदि क्रियाओं को करते हुए धर्म साधना करता है । अतः वह 'श्रावक' कहा जाता है। जैन परम्परा में श्रावक शब्द में प्रयुक्त तीन अक्षरों की विवेचना इस प्रकार भी की जाती है : श्र = श्रद्धा; व = विवेक और क = क्रिया | अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक विवेकयुक्त आचरण या समत्वयोग की साधना करता है वह श्रावक है । ७७ जैनधर्म में गृहस्थ-साधना का स्थान : इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि श्रमण साधना की अपेक्षा गृहस्थ जीवन में रहकर की जाने वाली साधना निम्न स्तरीय है । तथापि वैयक्तिक दृष्टि से कुछ गृहस्थ साधकों को कुछ श्रमण साधकों की अपेक्षा साधना पथ में श्रेष्ठ माना गया है 1 उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि कुछ गृहस्थ भी श्रमणों की ७७ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २५८ । - डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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