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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग और ज्ञेय का भेद रहेगा, तो आत्मा सदैव ही अज्ञेय बनी रहेगी। इसलिए आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय तो यही है कि हम यह जानें कि आत्मा क्या नहीं है? आत्मा क्या नहीं है, यह जानना ही भेदविज्ञान है। इसका विस्तृत विवेचन आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार नामक ग्रन्थ में किया है। वे लिखते हैं : “रूप आत्मा नहीं है; क्योंकि वह कुछ नहीं जानता। अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है। वर्ण आत्मा नहीं है; क्योंकि वह कुछ नहीं जानता। अतः वर्ण अन्य और आत्मा अन्य है। गन्ध, रस, स्पर्श और कर्म आत्मा नहीं हैं; क्योंकि वे कुछ नहीं जानते। अध्यवसाय आत्मा नहीं है; क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं, अतः वे स्वतः कुछ नहीं जानते - क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न ही होता है)। अतः अध्यवसाय अन्य हैं और आत्मा अन्य है।"६१ आत्मा न नारक है, न तिर्यंच है, न देव है, न बालक है, न वृद्ध है, न तरुण है, न राग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है और न लोभ है। वह इनका कारण भी नहीं है और कर्ता भी नहीं है।६२ इस प्रकार अनात्म के धर्मों (गुणों) के चिन्तन के द्वारा आत्मा का अनात्म से पार्थक्य किया जाता है। यही प्रज्ञापूर्वक आत्म-अनात्म में किया हुआ विभेद भेदविज्ञान या समत्वयोग कहा जाता है। इसी भेदविज्ञान के द्वारा अनात्म के स्वरूप को जानकर उसमें आत्मबुद्धि का त्याग करना ही सम्यग्ज्ञान एवं समत्वयोग की साधना है। समयसार ३६२-४०३ । 'णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। ७८ ।। णाहं बालो वुड्ढो ण चेव तरुणो णकारणं तेसिं । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। ७६ ।। णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। ८० ।। णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं।। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। ८१ ।।' -नियमसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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