SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना लिखते हैं कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेय रूप ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता; क्योंकि आत्मा ज्ञाता है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है, जिसे ज्ञाता-ज्ञेय रूप ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति भी इस साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म अर्थात् उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? अनात्म स्वरूप को जानकर ही उससे विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि के माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। सामान्य बुद्धि चाहे हमें यह न बता सके कि परमार्थ का स्वरूप क्या है, लेकिन वह यह तो सहज रूप से बता सकती है कि यह परमार्थ नहीं है। जो-जो भी हमारे ज्ञान का विषय है, वह सब हमसे पर है - अनात्म है, क्योंकि हम तो ज्ञाता हैं और ज्ञाता सदैव ही ज्ञेय से भिन्न होता है। ज्ञायक आत्मा को ज्ञेय पदार्थों से पृथक् करने वाले ज्ञान को ही भेदविज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक कहा जाता है। भेदविज्ञान या आत्म-अनात्म विवेक में दो तत्त्वों को जानना होता है : (१) आत्म क्या है; और (२) पर क्या है? किन्तु आत्मा को जानना एक कठिन कार्य है; क्योंकि आत्मा ज्ञाता है, जानने वाला है और जानने के हर प्रयास में जानने वाला पकड़ में नहीं आ सकता - जिस प्रकार जो आँख सब को देखती है, पर उसे स्वयं नहीं देखा जा सकता।६ आत्मा ज्ञाता है - उसे ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि ज्ञाता जिसे भी जानता है, वह ज्ञान का विषय होता है और वह ज्ञाता से भित्र होता है। इसलिए उपनिषद् के ऋषियों ने कहा कि “अरे विज्ञाता को कैसे जाना जाए; जिसके द्वारा सब कुछ जाना जाता है, उसे कैसे जाना जाए?"६० इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मज्ञान एक कठिन समस्या है। आत्मा का ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के द्वेत के आधार पर नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के ज्ञान में यदि ज्ञाता -डॉ. सागरमल जैन । ५६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ७७ । केनोपनिषद् १/४ । बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy