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________________ अलंकारचिन्तामणिः [१५अत्रोदाहरणं पूर्वपुराणादिसुभाषितम् । पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपरं स्तोत्रमिदं ततः ।।५।। सन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यताः सूतेऽम्भः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वन्ति यत् । किं वाभ्यर्थनयानया यदि गुणोऽस्त्यासां ततस्ते स्वयं कर्तारः प्रथमं न चेदथ यशःप्रत्यर्थिना तेन किम् ॥६॥ शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलितं रीतिभावाभिरामम् व्यंग्याद्यथं विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढयम् । लोको द्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमय्यं सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम् ॥७॥ ग्रन्थके स्तोत्रत्वकी सिद्धि इस अलंकार ग्रन्थमें अलंकारोंके उदाहरण प्राचीन पुराण ग्रन्थ, सुभाषित-ग्रन्थ एवं पुण्यात्मा शलाकापुरुषोंके स्तोत्रोंसे उपस्थित किये गये हैं, अतः यह ग्रन्थ भी एक प्रकारसे स्तोत्र ग्रन्थ है ॥५॥ सज्जन-प्रशंसा और आत्मलघुता वाणीके विचार करने में तत्पर-काव्यके गुण-दोषोंके विचार करने में समर्थ सज्जन विद्वान् मुझपर प्रसन्न हों; क्योंकि जल कमलोंको उत्पन्न करता है और पवन उन कमलोंको सुगन्धको दूर-दूर तक व्याप्त कर देता है। आशय यह है कि कवि काव्य-रचना करता है और सहृदय आलोचक उसके गुणोंका विस्तार करते हैं। अथवा सज्जनोंसे इस प्रकारकी प्रार्थना करनेकी आवश्यकता नहीं, यत: मेरी इस वाणीके विलासमें यदि गुण हैं, तो वे स्वयं ही मेरे इस अलंकार ग्रन्थका विस्तार करेंगे। यदि मेरे इस अलंकार ग्रन्थमें कोई गुण नहीं है, तो अपकोत्ति फैलानेवाले इस अलंकार ग्रन्थके विस्तारसे-प्रसारसे क्या लाभ ? ॥६॥ काव्यका स्वरूप __ सुख चाहनेवाला, अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता और अत्यन्त प्रतिभाशाली कवि शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, शृंगारादि नव रसोंसे सहित, वैदर्भी इत्यादि रीतियोंके सम्यक् प्रयोगसे सुन्दर, व्यंग्यादि अर्थोसे समन्वित, श्रुतिकटु इत्यादि दोषोंसे शून्य, प्रसाद, माधुर्य आदि गुणोंसे युक्त, नायकके चरितवर्णनसे सम्पृक्त, उभयलोक हितकारी एवं सुस्पष्ट काव्य ही उत्तम काव्य होता है । तात्पर्य यह है कि कवियोंको पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त काव्यका प्रणयन करना चाहिए ॥७॥ १. तनुताम्-के । २. काव्यमुग्रम्-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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