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अलंकारचिन्तामणि है। प्रथम परिच्छेदका विषय अभी तक प्राप्त आर्ष अलंकारके किसी ग्रन्थमें उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः इस प्रकारके विषयका प्रतिपादन साहित्यदर्पणके किसी संस्करणके पादटिप्पणोंमें प्राप्त है ।
रसकी परिभाषा जैनदर्शनके आलोकमें अंकित की गयी है। विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थायीभावोंका स्वरूप सामान्यतः अन्य अलंकार ग्रन्थोंके तुल्य है । रीतिकी परिभाषा इस ग्रन्थकी बहुत ही स्पष्ट और व्यापक है । निष्कर्ष
___ संस्कृतके अलंकारशास्त्रियोंने काव्यके तत्त्वों एवं उपकरणों पर विस्तारपूर्वक विचार किया है । अग्निपुराणकी काव्य-परिभाषामें इष्टार्थ, संक्षिप्त वाक्य, अलंकार, गुण और दोष ये पांच बातें समाविष्ट हैं । इस परिभाषा द्वारा काव्यको बाह्य रूपरेखा स्पष्ट होती है, अन्तरंग स्वरूपपर प्रकाश नहीं पड़ता है । भामहने शब्द, अर्थका संयोग काव्य कहा है। यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक है। इसके क्षेत्रमें काव्यके अतिरिक्त शास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सभी समाविष्ट हो जाते हैं। अतएव यह अतिव्याप्ति दोषसे दूषित है। दण्डीने इष्ट अर्थको प्रकट करनेवाली पदावलीको काव्य कह कर उसके शरीर मात्रपर प्रकाश डाला, आत्माका स्पर्श न किया। यही भाव ध्वन्यालोककार आनन्दवर्द्धनाचार्यका भी था। वामनने काव्यके भीतर समस्त सौन्दर्यको समाविष्ट करनेका प्रयत्न किया। इन्होंने काव्यके लिए अलंकारको काव्यतत्त्व माना तथा रीतिको काव्यकी आत्मा प्रतिपादित किया। मम्मटने काव्यको दोषहीन, गुणयुक्त और कभी-कभी अलंकारसे रहित शब्दार्थ कहा । इस लक्षणके भीतर दो विशेषताएँ निषेधात्मक हैं और उनमें भी एक अनिश्चित है । अदोष शब्दार्थ क्या है ? सम्भवतः ऐसा काव्य कोई न हो जिसमें दोष न मिल सके । अनेक गुणोंसे युक्त काव्यमें भी कोई न कोई दोष निकाला जा सकता है। कहीं-कहीं अलंकारसे रहित होना लक्षणकी कोई विशेषता नहीं हो सकती। सगण शब्द भी काव्यकी कोई महत्त्वपूर्ण विशेषता प्रकट नहीं करता क्योंकि गुण बड़ा व्यापक अर्थ देने वाला शब्द है, और काव्यगुणोंसे युक्त होना काव्य है। यह परिभाषा अपने ही अंगसे अंगीको स्पष्ट करनेवाली है। काव्यको एक निश्चित क्षेत्रसे बाँधती हुई भी यह परिभाषा काव्यका तात्त्विक और मार्मिक स्वरूप स्पष्ट नहीं कर पाती।
हेमचन्द्रने दोषहीनता गुण और अलंकारको अनिवार्यता काव्य-परिभाषाके अन्तर्गत रखे हैं। यह परिभाषा एक सीमित क्षेत्रको ही अपने भीतर समाविष्ट कर पाती है । अलंकार, गुण और दोष ये स्वयं शास्त्रीय शब्द हैं । अतः इस लक्षणके द्वारा काव्यकी धारणा स्पष्ट नहीं हो पाती है। शब्दार्थ काव्य है, यह माननेपर कविका उद्देश्य हलका और शब्दार्थके चमत्कार तक ही सीमित रह जाता है, कोई गम्भीर उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता है। विश्वनाथ रसयुक्त वाक्यको काव्य मानते हैं। इसका
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