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अलंकारचिन्तामणि षष्ठ अध्यायमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, दीपक, अन्योक्ति, पर्यायोक्ति, अतिशयोक्ति, आक्षेप, विरोध, सहोक्ति, समासोक्ति, जाति, व्याजस्तुति, श्लेष, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास, सन्देह, अपहृति, परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति, भ्रान्ति, विषम, सम, समुच्चय, परिसंख्या, कारण माला और संकर, इन उनतीस अर्थालंकारोंका वर्णन आया है। रस और भावसे सम्बन्धित रसवत्, प्रेयस् , उर्जस्वि, समाहित अलंकारोंको छोड़ दिया गया है। इन्होंने स्वभावोक्तिके लिए जाति तथा अप्रस्तुत प्रशंसाके लिए अन्योक्ति शब्द प्रयुक्त किये हैं।
सप्तम अध्यायमें नायक एवं नायिका-भेद-प्रभेदोंपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । नायकके गुण और प्रतिनायककी परिभाषा दी गयी है । नायिकाओंके स्वाधीनपतिका, प्रोषितभर्तृका, खण्डिता, कलहान्तरिता, वासकसज्जा, विरहोत्कण्ठिता, विप्रलब्धा एवं अभिसारिका नायिकाओंका भी वर्णन आया है।
अष्टम अध्यायमें काव्यको प्रेक्ष्य तथा श्रव्य दो भागोंमें विभाजित किया है। गद्य-पद्यके आधारपर काव्य-विभाजन नहीं किया है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशके साथ ग्राम्य-भाषाको भी काव्यभाषा कहा है। प्रेक्ष्यके पाट्य और गेय दो वर्ग किये गये हैं। श्रव्यके महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चम्पू और अनिबद्ध ये पाँच-भेद किये हैं। कथाके आख्यान, निदर्शन, प्रवल्लिका, मन्थल्लिका, मणिकुल्या, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा तथा बृहत्कथा ये दस भेद बताये हैं।
पाट्यके बारह भेद बताये हैं--१. नाटक, २. प्रकरण, ३. नाटिका, ४. समवकार, ५. ईहामृग, ६. डिम, ७. व्यायोग, ८. उत्सृष्टिकांक, ९. प्रहसन, १०. भाण, ११. वीथी और १२. सट्टक । गेयके १. डोम्बिका, २. भाण, ३. प्रस्थान, ४. शिंगक, ५. भाणिक, ६. प्रेरण, ७. रामक्रीडि, ८. हल्लीसक, ९. रासक, १०. श्रीगदित और ११. रागकाव्य, ये ग्यारह भेद बतलाये हैं। इनका वर्णन अलंकारचूड़ामणि वृत्तिमें किया गया है। महाकाव्यकी परिभाषा भी इसी अध्याय में अंकित की गयी है।
काव्यानुशासन और अलंकारचिन्तामणिके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि काव्यानुशासन प्रायः संग्रह ग्रन्थ है और अलंकारचिन्तामणि मौलिक । काव्यानुशासनपर मम्मटके काव्यप्रकाशका पूरा प्रभाव है। काव्यके कारणोंका विवेचन करते हुए आचार्य हेमने केवल प्रतिभाको ही काव्यका हेतु कहा है। व्युत्पत्ति और अभ्यासको छोड़ दिया गया है । शक्ति अथवा प्रतिभाको दोनों ग्रन्थोंमें हेतु माना गया है, यतः प्रतिभा नैसगिकी होती है, इसके अभावमें काव्यरचना सम्भव नहीं है। आचार्य हेमने "लोकशास्त्रकाव्येषु निपुणता व्युत्पत्तिः"-लोक-शास्त्र तथा काव्यमें प्रावीण्य प्राप्त करना व्युत्पत्ति बताया है। अलंकारचिन्तामणिमें छन्दश्शास्त्र, अलंकारशास्त्र, गणित, कामशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, शिल्पशास्त्र, तर्कशास्त्र एवं अध्यात्मशास्त्रोंमें निपुणता प्राप्त करना व्युत्पत्ति कहा है। अजितसेन काव्यरचनाके लिए तीनों हेतुओंको आवश्यक मानते हैं। काव्यपरिभाषा
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