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________________ प्रस्तावना सम्बन्धमें इन दोनों ही ग्रन्थोंमें विचार नहीं किया गया है। इतना ही नहीं अलंकारचिन्तामणिमें वाग्भटालंकारके कई पद्य भी सिद्धान्त कथनके लिए उद्धृत किये हैं । अलंकारचिन्तामणि के प्रणयनमें वाग्भटालंकारसे सहायता अवश्य ली गयी है। हेमचन्द्राचार्यका काव्यानुशासन और अलंकारचिन्तामणि ___ आचार्य हेमचन्द्रने सूत्रशैली में काव्यानुशासन नामक ग्रन्थकी रचना की है। इसपर अलंकारचूड़ामणि नामक वृत्ति और विवेक नामक टीकाएँ भी उन्हींके द्वारा लिखी गयी हैं। काव्यानुशासन में आठ अध्याय हैं जिनमें शब्द, अर्थके लक्षण, लक्ष्यादि भेद, रस-दोष, तीन गुण, छह शब्दालंकार, उन्तीस अर्थालंकार एवं नायिकादि भेद निरूपित किये गये हैं। प्रथम अध्यायमें काव्यकी परिभाषा, काव्यके हेतु, काव्य-प्रयोजन आदिपर समुचित प्रकाश डाला गया है। प्रतिभाके सहायक व्युत्पत्ति और अभ्यास, शब्द तथा अर्थका रहस्य, मुख्यार्थ, गौणार्थ, लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थकी तात्त्विक विवेचना की गयी है। प्रतिभा और प्रज्ञाको आचार्य हेमने तुल्यार्थक माना है। नयी-नयी कल्पना करनेवाली प्रज्ञा ही प्रतिभा कहलाती है। काव्यकी परिभाषा निबद्ध करते हुए लिखा है अदोषी सगुणौ सालंकारी च शब्दार्थो काव्यम् ।' अर्थात् दोषरहित गुणसहित सालंकार कृतिको काव्य कहते हैं। हेमकी यह परिभाषा मम्मटके काव्यप्रकाशका अनुसरण करती है । द्वितीय अध्यायमें रस, स्थायीभाव, व्यभिचारीभाव तथा सात्त्विकभावोंका वर्णन आया है। इसमें काव्यकी श्रेणियाँ, उत्तम, मध्यम तथा अधम बतलायी गयी हैं। इसी अध्यायमें रस, भाव, रसाभास, भावाभास भी वर्णित हैं। रसके सम्बन्धमें आचार्य हेमने गहरा विचार किया है। इन्होंने कान्यके गुण-दोष, अलंकार आदिका अस्तित्व रसकी कसौटीपर ही बतलाया है। रसके जो अपकर्षक हैं वे दोष हैं, जो उत्कर्षक है वे गुण हैं और जो रसाश्रित हैं वे अलंकार हैं। अलंकार यदि रसोपकारक हैं तभी उनकी काव्यमें गणना हो सकती है । रस-बाधक अथवा उदासीन होनेपर उनकी गणना दोषोंके अन्तर्गत आती है। हेमका रस-विवरण बहुत ही सोपपत्तिक है। तृतीय अध्यायमें शब्द, वाक्य, अर्थ तथा रसके दोषों पर प्रकाश डाला गया है । आरम्भमें काव्य-दोषोंका वर्णन किया है। चतुर्थ अध्याय काव्यगुणोंसे सम्बन्धित है । ओज, माधुर्य, एवं प्रसाद इन तीनों गुणोंका उदाहरणसहित स्वरूप बतलाया है । इनके अनुसार काव्यके तीन ही गुण होते हैं, पाँच अथवा दस नहीं । चतुर्थ अध्यायमें अनुप्रास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति और पुनरुक्तवदाभास, इन छह शब्दालंकारोंका वर्णन आया है। यमकके भेद-प्रभेद भी निरूपित हुए हैं। श्लेषालंकारका स्वरूप तो बतलाया ही गया है साथ ही उसके उपभेद भी निरूपित हैं। १. काव्यानुशासनम्, निर्णय सार प्रेस बम्बई. १६३४ पृष्ठ १६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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