________________
६२
अलंकारचिन्तामणि अतिमात्र, विरस, विसदृश, अश्लील, विरुद्ध और संशयाढ्य ये दोष दोनों ग्रन्थोंमें समानरूपसे वर्णित हैं । सरस्वतीकण्ठाभरया में विरुद्ध दोषके प्रत्यक्षविरुद्ध , आगमविरुद्ध, अनुमानविरुद्ध, देश-काल-लोकविरुद्ध, युक्तिविरुद्ध, धर्मशास्त्रविरुद्ध, अर्थशास्त्रविरुद्ध आदि कई भेद किये हैं । अलंकारचिन्तामणिमें इस प्रकारके दोषभेदोंका अभाव है।
इस प्रकार दोष वर्णनकी दृष्टिसे सरस्वतीकण्ठाभरण और अलंकारचिन्तामणिमें पर्याप्त साम्य है। दोनों अलंकारग्रन्थोंकी कथन-शैली भी तुल्य है ।
सरस्वतीकण्ठाभरणमें शब्दगुण और अर्थगुणोंका पृथक्-पृथक् उल्लेख आया है और इन दोनों ही प्रकारके. गुणोंके चौबीस-चौबीस भेद किये हैं। अलंकारचिन्तामणि में शब्दगुण और अर्थगुणका भेद न कर सामान्यतया गुणके चौबीस भेद बतलाये हैं। गुणोंके नाम, परिभाषा एवं प्रतिपादन शैली तुल्य है। अन्तर इतना ही है कि सरस्वतीकण्ठाभरणमें शब्दगुण और अर्थगुणों की परिभाषाएँ शब्द और अर्थको दृष्टि में रखकर निबद्ध की गयी हैं, पर अलंकारचिन्तामणिमें सामान्य दृष्टिसे ही निरूपण किया है।
सरस्वतीकण्ठाभरण का यह प्रकरण अलंकारचिन्तामणिसे अधिक समृद्ध है। विस्तारके साथ सूक्ष्म मीमांसा भी उपलब्ध है। दोष किस सन्दर्भमें किस प्रकार गुणत्वको प्राप्त करते हैं, यह भी इस ग्रन्थमें प्रतिपादित है। भोजने प्रत्येक दोषके गुणत्वपर चिन्तन किया है, ऐसा चिन्तन अलंकारचिन्तामणिमें नहीं पाया जाता है।
सरस्वतीकण्ठाभरके द्वितीय परिच्छेदमें शब्द, अर्थ और शब्द-अर्थके आश्रयसे अलंकारोंके स्वरूपका निर्धारण किया गया है। शब्दालंकारके चौबीस भेदोंमें जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शय्या, पठिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, वृत्ति, चित्र, गूढ, प्रश्नोत्तर, काव्यादिव्युत्पत्ति, श्रव्यकाव्य, दृश्यकाव्य, चित्राभिनयकी गणना की है। अलंकारचिन्तामणिमें इतने उपभेद नहीं किये गये हैं, पर.मूल चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकके विवेचन प्रसंगमें सरस्वतीकण्ठाभरणके सभी भेद सम्मिलित हो गये हैं। इस अलंकार ग्रन्थमें चित्रालंकारके अनेक भेदोंमें ४२ भेदोंको प्रमुखता दी गयी है और इन सभीका सोदाहरण निरूपण किया गया है।
शब्दालंकारका प्रकरण अलंकारचिन्तामणिका सरस्वतीकण्ठाभरणसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । इसमें अलंकारोंके उपभेदोंकी संख्या इतनी अधिक वर्णित है जिससे सरस्वतीकण्ठाभरणके चौबीस भेद उनके अन्तर्भूत हो जाते हैं। सरस्वतीकण्ठाभरणमें वृत्ति, रीति, दृश्यकाव्य, अभिनय आदिको भी शब्दालंकारके अन्तर्गत रखा है, पर यह उचित प्रतीत नहीं होता। वृत्ति और रीतियोंका अपना पृथक अस्तित्व है, उसी प्रकार अभिनय, दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य आदिको भी शब्दालंकारों के अन्तर्गत रखना उचित नहीं है । अलंकारचिन्तामणिमें रीतिके तीन भेद हैं और सरस्वतीकण्ठाभरणमें रीतिके छह भेद वर्णित है-वैदर्भी, पांचाली, गौडी, अवन्तिका, लाटीया, और मागधी। वत्तिके भी छह भेद आये हैं-कैशिकी, आरभटी, भारती, सात्वती, मध्यमा कैशिकी और मध्यमा आरभटी । इस प्रकार सररवतीकण्ठाभरणमें अलंकारचिन्तामणिकी अपेक्षा जहाँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org