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________________ प्रस्तावना ५५ काव्यम् ' ' अर्थात् दोषरहित और अलंकारसहित शब्दार्थको काव्य कहा है । रुद्रट काव्यमें १ रसकी स्थिति भी परमावश्यक मानते हैं । उन्होंने लिखा हैतस्मात्तत्कर्तव्यं यत्नेन महीयसा रसैर्युक्तम् । २ I अलंकारचिन्तामणिकी काव्यपरिभाषामें भी अलंकार, रस, रीति, व्यंग्यार्थं, दोषशून्यत्व और गुणयुक्तताको काव्य कहा है । अतएव काव्य- परिभाषाकी दृष्टिसे अलंकार चिन्तामणिमें निरूपित काव्यकी परिभाषा काव्यालंकारकी अपेक्षा अधिक स्पष्ट और व्यापक है । अलंकारचिन्तामणिमें रीतिकी परिभाषा अंकित की गयी है और तीन प्रकारकी रीतियोंके स्वरूप एवं उदाहरण आये हैं । पर रुद्रटके काव्यालंकार में रीतिकी परिभाषा अंकित नहीं है और रीतिके चार भेद बतलाये हैं - १. वैदर्भी, २. पांचाली, ३. लाटी और ४. गौडी । काव्यालंकार में काव्य में प्रयुक्त होनेवाली प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश इन छह भाषाओंका उल्लेख आया है, पर अलंकारचिन्तामणिमें संस्कृत, प्राकृत, पैशाची और अपभ्रंश इन चार भाषाओंका ही उल्लेख है । अलंकारचिन्तामणिमें चित्रालंकारके बयालीस भेद बतलाये हैं और इन समस्त भेदोंका स्वरूपनिर्धारण उदारहणसहित आया है । जहाँ काव्यालंकारमें चक्रबन्ध, मुरजबन्ध, अर्धभ्रम, सर्वतोभद्र, मात्राच्युतक और प्रहेलिकाका निरूपण किया है, वहाँ अलंकार चिन्तामणि में चित्रालंकारके अनेक भेद वर्णित हैं । चक्रबन्ध, पद्मबन्ध, काकपद - चित्र, गोमूत्रिकाबन्ध सर्वतोभद्र, श्रृंखलाबन्ध, नागपाशबन्ध, मुरजबन्ध, पादमुरजबन्ध, इष्टपादमुरजबन्ध, अर्धभ्रम, दर्पणबन्ध, पट्टबन्ध, नि: शालबन्ध, परशुबन्ध, भृंगारबन्ध, छत्रबन्ध और हारबन्ध जैसे अनेक बन्धोंका कथन आया है । इसमें सन्देह नहीं कि काव्यालंकार की अपेक्षा अलंकारचिन्तामणिका चित्रालंकार अनेक दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है । जहाँ काव्यालंकारमें वक्रोक्ति, यमक, अनुप्रास और श्लेषका सामान्य वर्णन आता है, वहाँ अलंकार चिन्तामणिमें इन अलंकारोंका विशेष वर्णन उपलब्ध होता है । यमकालंकारके ग्यारह प्रमुख भेद निरूपित हैं । काव्यालंकार में अनुप्रासकी मधुरा, ललिता, प्रौढ़ा, परुषा और भद्रा ये पाँच वृत्तियाँ वर्णित हैं, पर अलंकार चिन्तामणि में इन वृत्तियों का उल्लेख नहीं आया है । अर्थालंकारोंका निरूपण समान होते हुए भी कतिपय भिन्नताएँ प्राप्त होती हैं । काव्यालंकारमें अट्ठावन अलंकारोंके स्वरूप उदाहरण में आये हैं । पर अलंकारचिन्तामणिमें बहत्तर अर्थालंकारोंके स्वरूप आये हैं । काव्यालंकारमें दस रसोंका निरूपण किया गया है । अलंकारचिन्तामणिमें नौ रस ही वर्णित हैं । रुद्रटने प्रेयस नामक दसवाँ रस माना है । इसे अलंकारचिन्तामणिमें अलंकार में परिगणित किया है । शृंगारका लक्षण और उसके सम्भोग एवं विप्रलम्भ नामक दो प्रकार नायकके गुण और उसके सहायकों का वर्णन एवं नायक-नायिका भेद १. काव्यालंकार २०१, पृ. ८ । २. वही, १२२, पृ. १५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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