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अलंकारचिन्तामणि
दोषोंकी पृथक् चर्चा कर दोष प्रकरणको सांगोपांग बनाया है । अलंकारचिन्तामणिमें शब्दशक्तियों का भी निरूपण है । भामहने अपने काव्यालंकारमें इन शक्तियोंपर विचार नहीं किया है ।
दण्डीकृत काव्यादर्श और अलंकारचिन्तामणि
दण्डीने काव्यादर्श नामक ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में तीन परिच्छेद हैं । प्रथम परिच्छेद में काव्यपरिभाषा, काव्यभेद, महाकाव्य लक्षण, गद्यके प्रभेद, कथा, आख्यायिका, मिश्रकाव्य, भाषाप्रभेद, वैदर्भी आदि मार्ग, अनुप्रास, गुण और काव्यहेतुओं का विवेचन है । द्वितीय परिच्छेद में पैंतीस अर्थालंकार सोदाहरण निरूपित हैं । तृतीय परिच्छेद में यमक, गोमूत्र आदि चित्रबन्ध काव्य, प्रहेलिका और दस दोषोंका निरूपण आया है । तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि भामहका न्यायदोष प्रकरण यदि austसे अधिक महत्त्वपूर्ण है तो दण्डीका अलंकार, रीति और गुण विवेचन भामह की अपेक्षा अधिक परिष्कृत और उपयोगी है । दण्डी ऐसे प्रधान अलंकारशास्त्री हैं जिन्होंने अपने समस्त पूर्ववर्तियोंसे अधिक अलंकारोंके उपभेदोंका एवं गुण और रीतिका विस्तृत निरूपण किया है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि दण्डीने अलंकारोंके उपभेदोंके वर्णन में अपने पूर्ववर्ती आचार्योंका अनुसरण नहीं किया है । दण्डीको मौलिकता कई दृष्टियोंसे है । इन्होंने चम्पूकाव्यकी परिभाषा भी लिखी है ।
दण्डी द्वारा निरूपित काव्यहेतुओं और अलंकार चिन्तामणिके काव्यहेतुओं पर तुलनात्मक दृष्टिसे विचार किया जाये तो अवगत होगा कि दण्डीने प्रतिभा, श्रुतज्ञान और अभ्यासको काव्यहेतु माना है । अलंकारचिन्तामणिमें भी उक्त तीनों काव्यहेतुओंका निरूपण आया है । पर अन्तर यह है कि दण्डी प्रतिभाके अभाव में भी केवल निपुणता और अभ्यासको काव्यरचनाका हेतु मानते हैं । उन्होंने लिखा है
न विद्यते यद्यपि पूर्ववासना गुणानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम् । श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता
ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ।। तदस्ततन्द्रैरनिशं सरस्वती
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श्रमादुपास्या खलु कीर्तिमीप्सुभिः । कुशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमा विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते ।। '
auster अभिप्राय यह है कि काव्याकृति में मौलिकताका निर्माण आहार्यप्रतिभा द्वारा होता है । यह प्रतिभा काव्यशास्त्र श्रवण, काव्यशास्त्र चिन्तन एवं काव्यशास्त्र
. १ काव्यादर्श, १९०४,१०५ ॥
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