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________________ ३१६ अलंकारचिन्तामणिः - [५३३४३पद्मरागमणिजातरक्तिमा स्फाटिकीव दृषदायताम्बका। जायते च गणिका यदा युता येन रागसहिता तदैव च ॥३४३।। मुग्धा मध्या प्रगल्भेति स्वीया सा त्रिविधा मता। रते वामाल्पकृन्मुग्धा नवयौवनमन्मथा ॥३४४॥ नवाङकुरोद्भिन्नकुचां लताङ्गी मुखाब्जलोलालकचञ्चरीकाम् । 'रतोररीकारमतिच्युतां तां बहिः परं तुष्टिर्मितोऽनुगृह्य ॥३४५।। मध्या गढवयः कामा मोहितान्त्यरते यथा। केशान् गृह्णति चुम्बति प्रतिलिखत्यास्फालयत्यादराद्वक्षो ह्यरुतटे करं रदनखं व्यापारयत्यात्मनः। तन्वाने रतचाटुकोटिमतुले श्रीनायके भोः सखि शापांस्तत्र शतं व्यधामपि मया ज्ञानं न किंचित् तदा ॥३४६॥ गणिका पद्मराज मणिको लालिमाके समान प्रतीत होनेवाली तथा स्फटिक मणिके समान स्थिर और विस्तृत नेत्रवाली जब जिस पुरुषसे मिलती है, उसी समय प्रेमभावकी प्रतीति कराती है। ऐसी नायिकाको गणिका कहते हैं ॥३४३॥ स्वकीया नायिकाके भेद और मुग्धाका स्वरूप स्वकीया नायिकाके तीन भेद हैं-(१) मुग्धा (२) मध्या और ( ३) प्रगल्भा । सुरतादि कार्यों में असहमत, अल्प सुरतादि करनेवाली युवति और नूतन कामवासनावाली नायिकाको मुग्धा कहते हैं ॥३४४।। उदाहरण नूतन विकासोन्मुख पयोधरवाली, लताके समान कृशाङ्गी, मुख कमलपर भ्रमरके समान पड़े हुए केशवाली, सुरत स्वीकृतिसे विमुख उस मुग्धाको आलिंगनकर किसी नायकने बहुत अधिक बाहरी सन्तोषको प्राप्त किया ||३४५।। मध्याका स्वरूप गुप्तावस्थामें विद्यमान काम वासनावाली तथा सुरतके अनन्तर बेहोश हो जानेवाली नायिकाको मध्या कहते हैं । यथा __केशोंके ग्रहण करने, चुम्बन करने, अंगोंको सहलाने, आदरपूर्वक वक्षःस्थलको ताड़न करने तथा ऊरु तटपर अपने हाथोंको रखने, दन्त एवं नखक्षत करने और असीम २. मितो निगृह्य-ख । मितो निगुह्य-क। ३. रूढवयः-ख । १. रतोररिका-ख। ४. वरनखम्-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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