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अलंकारचिन्तामणिः
[५।३३४माधुर्यं तकणं सूक्ष्मकलासंचयगोचरम् । प्राणनाशेऽपि धिक्काराक्षमत्वं तेज उच्यते ॥३३४।। शोभायां शौर्यदक्षत्वे स्पर्धा नीचैघृणाधिकैः । 'विलासो(?) सस्मितोक्तिस्सधैर्या गतिः प्रसन्नदृक् ॥३३५॥ औदार्य स्वपरेषु स्याद दानाभ्युपगमाधिकम् । ललितं मृदुशृङ्गाराकृतौ सहजचेष्टनम् ॥३३६।।
उल्लेख इस पद्यमें है । क्षुब्धावस्थामें भी प्रभावके कारण जो विकृतिका अभाव है, उसे गम्भीरता कहते हैं ।।३३३॥ स्थैर्य, माधुर्य और तेज -
___ महान् विघ्नके उपस्थित हो जानेपर भी कार्यसे विचलित न होनेको स्थैर्य कहते हैं । सूक्ष्म कलाओंके संचय, प्रत्यक्ष और तर्कज्ञानको माधुर्य कहते हैं। माधुर्यका अभिप्राय मनःक्षोभके कारणोंके रहते हुए भी मनकी स्वस्थता और शान्ति है। प्राणनाशके समय भी धिक्कारको नहीं सह सकने को तेज कहते हैं। तात्पर्य यह है कि तेज वह सात्विक पौरुष गुण है, जिसे किसी दूसरे के द्वारा किये गये 'आक्षेप अथवा अपमानका प्राणसंकट पड़नेपर भी सहन न करना कहा गया है ॥३३४॥ शोभा और विलास
'शोभा' को दक्षता, शूरता आदि पौरुष गुणोंकी जननीके रूप में देखा जा सकता है । इस गुणमें बड़ोंके साथ स्पर्धा और नीचोंके साथ घृणा रहती है । हास्ययुक्त कथनको विलास कहते हैं । इसके कारण दृष्टि में धीरता, चालमें विचित्रता और बोलचाल में मन्दहासकी छटा छिटका करतो है ॥३३५।। औदार्य और ललित
___ अपने या दूसरोंके प्रति दान या आदानके आधिक्यको औदार्य कहते हैं। इस गुणमें प्रियभाषण पूर्वक दान अथवा शत्रु-मित्रके प्रति समदर्शिताका व्यवहार किया जाता है। कोमल और शृंगारकृतिमें स्वाभाविक चेष्टाको ललित कहते हैं ॥३३६।। नायिकाओंके भेद
पूर्वोक्त नायक के गुणोंसे युक्त स्वकीया, परकीया और सामान्या, ये तीन नायिकाएं होती हैं।
२. सधैर्यगतिः-ख ।
१. विलासे सन्मतोक्तिस्-क। विलोकेन स्मितोक्तिः-ख। ३. खप्रती सहज इति पदं नास्ति ।
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