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अलंकारचिन्तामणिः
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मक्रीडागृहवक्षसी तरवधूः स्वप्नेऽपि मास्तामिति श्रीकान्ता सकलार्थ साधनपटो बाहौ च वीरेन्दिरा | ब्राह्मी' चोद्ध (?) मुखे कृतादरतया जागति सा देव्यपि तत्रैवेच्छुरिति प्रबुध्य निधिपोऽस्थाद् द्वित्रिनाडीविधिः || ३२४ ॥ काञ्चनूपुर किङ्किणीमणिरवं श्रुत्वान्यकान्तागत गाढा श्लेषमहाश्लथीकृतभुजग्रन्थिः शठाद्यासि भोः । साक्षात्तन्मनसो गतं मम सैंखी ह्यज्ञातवत्त्यागता त्वन्माधुर्यं वचोभ्रमा मम पुरस्तां श्लाघते स्मादरात् ।। ३२५ ।। तस्याश्चारुरते रदक्षतमहामुद्राङ्कितं स्वाधरं धूर्त च्छादयसे किमङ्घ्रिनमनव्याजेन मे रुश्रितः । इत्युक्तेन मया क्व चास्ति तदिति व्यामाष्टुमिच्छावता गाढाश्लिष्टतनुः सुविस्मृतवती तच्छर्म रोमाञ्चिता ॥ ३२६ ॥ सुखं त्वमसि चेदस्ति विश्वेन्द्रियसमुद्भवम् । अन्याङ्गनाकटाक्षादीननिच्छोर्मम सुप्रिये ॥ ३२७॥
[ ५।३२४
मेरे विलासभवनके भीतर कोई दूसरी स्त्री स्वप्न में भी न रहे, सम्पूर्ण कार्योंके करनेमें निपुण मेरे बाहुमें परम रमणीय वीर लक्ष्मीका निवास हो, मेरे मुखमें सर्वदा सरस्वती रहे । वह देवी भी वहीं रहना चाहती है, इस प्रकार जगकर सब कुछ विधान करनेवाले चक्रवर्ती भरत दो-तीन क्षण तक स्थिर रहे ।। ३२४ ॥
कोई शठ नायक कह रहा है कि अन्य नारीकी रशना और नूपुरकी मणिध्वनिको सुनकर गाढ आलिंगनसे ढोले किये हुए भुजबन्धनवाले हे शठ ! तू शठता से कहाँ जा रहा है, साक्षात् तुम्हारे मनकी बातको न जाननेवाली तुम्हारे मीठे वचनोंकी भ्रान्तिमें पड़ी हुई वह मेरी सखो आ गयो, इस प्रकार अत्यन्त आदरसे वह मेरे सामने सखी की प्रशंसा करती रही ।। ३२५ ।।
उसकी सुन्दर रतिक्रीडामें दन्त-क्षतरूपी मुद्रासे चिह्नित अपने अधरको चरणों में नमस्कार करने के बहानेसे मेरे क्रोधके समक्ष अपनेको समर्पित करनेवाले हे धूर्त, क्यों छिपा रहे हो, ऐसा कहनेपर वह कहाँ है, उसे पौंछने की इच्छावाले नायकने उस नायिकाका शरीर गाढ आलिंगन में बाँध लिया और उस सुखसे रोमांचित देहवालो वह नायिका सब कुछ भूल गयी ।। ३२६ ।।
हे प्रियतमे ! अन्य कामिनियोंके कटाक्ष इत्यादिको न चाहनेवाले मेरा सुख तुम ही हो । सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे उत्पन्न सुखरूप तुम्हीं मेरे लिए सुख स्वरूप हो ।। ३२७||
१. चोद्धमुखे - ख । २. नादिविधि::-ख । ३. साक्षात्त्वन्मनसो - क ख । ४. सखि - ख । ५. पुरस्त्वम्-क-ख । ६. लज्जत: - ख । रुट्छ्रतः - क । ७. सुविस्मृतवति तच्चर्म .... - ख ।
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