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________________ -३०७] पञ्चमः परिच्छेदः ३०७ तिङां सुपां परिज्ञानं सौशब्द्यं कथितं यथा । च्युतसंस्कारहान्यर्थ तदिह स्वीकृतं पुनः ॥३०३।। कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते ॥३०४॥ कवितनसंदर्भो गमकः कृतिभेदकः । वादी विजयवाग्वृत्तिर्वाग्मी तु जनरञ्जनः ॥३०५॥ उक्तेयः परिपाकः सा प्रोढिरित्युच्यते यथा। कल्पद्रोविभवो विधेः कुशलता भानोः सुतेजोगणो हेमाद्रेः प्रतिबिम्बनं गुणगणः स्वायंभुवोक्तेः स्फुटः । गाम्भीर्य जलधेर्विधोविलसनं चिन्तामणेदित्सनं जैनश्रीकरुणागणः शमरसश्चेत्येष तक्यों निधीट् ॥३०६।। पदानि यत्र युज्यन्ते इलाध्यमानविशेषणैः। उदात्तता मता सा चानुचितार्थत्वहानये ॥३०७॥ (२०) सूक्ति-तिङ् और सुप्के उत्तमज्ञानको सौशब्द्य कहते हैं । यह च्युतसंस्कार दोषको दूर करने के लिए माना गया है ।।३०३।। ___ समन्तभद्रका यश कवियों, ध्वनिके ज्ञाताओं, शास्त्राथियों और धर्मशास्त्रके व्याख्याताओंके मस्तकपर चूड़ामणिके समान प्रतीत हो रहा है ॥३०४॥ कवि, गमक, वादी और वाग्मीका स्वरूप नयी रचना करनेवालेको कवि, कृतिको समालोचना करनेवालेको गमक, विजयीवाणोसे जीविका करनेवालेको वादी अथवा शास्त्रार्थकी क्षमता रखनेवाले व्यक्तिको वादी और अपनी व्याख्यान कलासे जनताको मुग्ध करनेवालेको वाग्मो कहते हैं ॥३०५॥ (२१) प्रौढ़ि-अपने कथनके सम्यक् परिपाकको प्रोढ़ि कहते हैं । यथा-कल्पवृक्षको सम्पत्ति, ब्रह्माकी कुशलता, सूर्य का महातेज, सुमेरुका प्रतिबिम्ब, स्वयंभू भगवान्को उक्तिका सुस्पष्ट गुण समूह, चन्द्रमाका विलास, चिन्तामणिकी दानशीलता, समुद्रको गम्भीरता, जिनेश्वर भगवान्की शोभा, दया, और समर्शिता इन सब बातोंकी संभावना चक्रवर्ती भरतमें है ॥३०६॥ (२२) उदात्तता-जहाँ प्रशंसनीय विशेषणोंसे पद युक्त होते हैं, वहाँ उदात्तता नामक गुण अनुचितार्थत्व नामक दोषको दूर करनेके लिए माना गया है ॥३०७॥ २. जनरञ्जकः-ख । ३. -धित्सनम्-ख । ४. चैत्येषु-ख । १. वाग्मिनामपि-ख। ५. श्रीकरुणाङ्गणः-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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