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________________ २९८ अलंकारचिन्तामणिः ५।२६४एकादश्यां करजलिखितग्रोवमालिङ्ग्य गाढं पायं पायं दशनवसनं किंचिदालोढलोलाः । घातं घातं हृदि सहसितं मन्मथागारमुद्रा भङ्गक्रीडातरलितकराः कामिनी द्रावयन्ति ॥२६४।। व्रीडाकराश्लीलमपि कामशास्त्रे न दुष्यति । व!गृहं विषयिणां मदनायुधस्य नाडीवणं विषमनिर्वृतिपर्वतस्य । प्रच्छन्नपातुकमनङ्गमहाहिरन्ध्रमाहुर्बुधा जघनरन्ध्रमदः 'सुदत्याः ॥२६५।। जुगुप्साश्लीलमपि वैराग्यप्रस्तावे न दूषणम् । धन्विनः स्थानमन्यस्य सामान्यस्येदृशं कुतः। अहो दृष्टिरहो मुष्टिरहो 'सौष्ठवमित्यपि ॥२६६।। अर्जुनेन चापज्यासंधाने कृते नृपस्तवे अहो पदानां बहुधा विस्मये प्रयोगे न दोषः। मुक्ताहार इति प्रोक्ते शेषरत्ननिवर्तनम् । कार्मुकज्यापदेनापि चापारोपणनिश्चयः ॥२६७॥ एकादशी तिथिको ग्रीवापर नखच्छेद पूर्वक गाढालिंगन करके अधर चुम्बन, वक्षस्थल पर मुष्टि प्रहार करते हुए, मदन मन्दिरकी मुद्राका भंग करने में चञ्चल हाथवाले विषयीजन कामिनियोंको द्रवित करते हैं ॥२६४॥ यहां लज्जोत्पादक अश्लील वर्णन होनेपर भी कामशास्त्रका विषय होनेके कारण दोष नहीं माना जाता है। विद्वानोंने सुन्दरीके जघन छिद्रको विषयीजनोंका शौचालय, कामदेवके अस्त्रोंको नाड़ीका व्रण, भयंकर वैराग्यरूपी पर्वतकी गुफाको गिरानेवाला तथा कामदेवरूपी सर्पका महान् बिल कहा है।।२६५॥ वैराग्यके प्रकरणमें रमणोके वराङ्गका यह चित्रण जुगुप्सा रूप अश्लीलता उत्पन्न करनेपर भी दोषावह नहीं है । साधारण अन्य किसी धनुर्धारीका ऐसा स्थान कैसे हो सकता है । उसको दृष्टिको आश्चर्य है, मुष्टिको आश्चर्य है और उसका सौष्ठव भी आश्चर्यजनक है ॥२६६॥ अर्जुनके द्वारा धनुषपर ज्यासन्धान करनेपर राजाओं द्वारा की गयी इस स्तुतिमें अनेक बार विस्मयके अर्थ में अहो पदका प्रयोग किया है, पर यह दोषजनक नहीं है। १. सुदत्याः -ख । २. सौष्ठव ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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