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अलंकारचिन्तामणिः
[५।१९४त्रीणि लोचनानीति प्रस्तुते द्वादशार्द्धार्द्धनेत्राणीत्यनुपयोगः । यत्पादपूरणायैव निरर्थकमिदं यथा । अहं जिनेश्वरं वन्दे तु हि वै च महाधियम् ॥१९४॥ प्रेच्युतं व्यक्तरूढेर्यत्तदन्याथं मंतं यथा । विदग्धधर्मसद्भावो मिथ्यादृष्टिरभूदयम् ॥१९५॥
विदग्धशब्देन · विशेषेण दग्धधर्मास्तित्वस्य अवचनात् , विद्वानिव धर्मवानिति ( अ ) वचनात् ।
यदुक्तमप्रसिद्धार्थ तद्गूढार्थमिदं यथा । मित्रोदयोऽब्जसंघातं विकासयति सर्वतः ॥१९६॥ मित्रशब्दः सुहृदर्थे प्रसिद्धः सूर्ये दुष्यति । विपरीतार्थधीकारि यद्विरुद्धाशयं यथा । भूतलोपकँदादीशः प्रबभौ तीर्थकृज्जिनः॥१९७।।
प्रकृतमें तीन नेत्र कहना है, अतः यहाँ बारहके आधाका आधा कहना अनुपयुक्त है। निरर्थकका स्वरूप और उदाहरण
केवल पदको पति के लिए ही जिसका प्रयोग हुआ हो, उसे निरर्थक कहते हैं, यथा-निश्चय ही में अत्यन्त बुद्धिशाली-केवलज्ञानी जिनेश्वर भगवान्की स्तुति करता हूँ॥१९४॥ अन्यार्थका स्वरूप और उदाहरण
स्पष्ट रूढिसे प्रच्युत अर्थको अन्यार्थ कहा गया है; यथा---उत्तम धर्म और स्वभाववाला यह मनुष्य मिथ्यादृष्टि हो गया है ॥१९५॥
यहाँ 'विदग्ध' शब्दसे, विशेष रूपसे दग्ध धर्मको सत्ताके नहीं कहे जानेसे और विद्वान्के समान धर्मवान् कहनेसे अन्यार्थ दोष है। गूढार्थ दोषका स्वरूप और उदाहरण
जो अप्रसिद्ध अर्थमें कहा गया हो, उसे गूढार्थ कहते हैं; यथा-मित्रका उदय सभी प्रकारसे कमलसमूहको विकसित करता है। यहाँ 'मित्र' शब्द सुहृद् अर्थमें प्रसिद्ध है, अतः सूर्य अर्थमें प्रयुक्त होनेसे गूढार्थ नामक दोष है ॥१९६॥ विरुद्धाशयका स्वरूप और उदाहरण---
जो विपरीत अर्थका बोध कराता है, उसे विरुद्धाशय कहते हैं । यथा-सम्पूर्ण पृथिवीके प्राणियोंका उपकार करनेवाले आदि तीर्थकर विशेष शोभित हुए ।।१९७।।
१. प्रस्तुतं त्यक्त ( व्यक्त ) रूढैर्यत् तदस्यार्थं यथा -ख । २. धर्मवानित्यर्थवचनात् -क । धर्मवानित्यवचनात् -ख । ३. कृतादीशः -ख ।
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