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________________ २७९ -१९३ ) पञ्चमः परिच्छेदः काव्यहोनत्वहेतुर्यो दोषः शब्दार्थगोचरः । स शब्दार्थगतत्वेन द्वेधा संक्षेपतो मतः ॥१९०॥ पदवाक्यगतत्वेन शब्दगतोऽपि द्विधा । तत्र पदगतदोषा निरूप्यन्ते । 'नेयापुष्टनिरन्यगूढपदपूर्वार्थ विरुद्धाशयं ग्राम्यं क्लिष्टमयुक्तसंशयगताश्लोलाप्रतीतं च्युत । संस्कारं परुषाविमष्टकरणीयांशं तथायोजकमन्यच्चास्ति तथासमर्थमिति ते सप्तोत्तराः स्युर्दश ।।१९१॥ नेयार्थं तु स्वसंकेतरचितार्थं मतं तथा।। विकासयति नोरेजनिवहं गरुडध्वजः ।।१९२।। गरुडध्वज इत्युक्ते विष्णुः स च हरिः हरिरित्युक्ते सूर्य इति । |स्तुतानुपयोग्यार्थमपुष्टार्थं मतं यथा । द्वादशार्द्धार्द्धनेत्राणि कल्पितानि महेश्वरे ।।१९३॥ दोषकी परिभाषा शौर उसका भेद काव्यके महत्त्वको घटानेका कारण शब्द और अर्थमें रहनेवाला दोष है, अतः शब्द और अर्थमें रहनेके कारण दो प्रकारके दोष माने गये हैं ॥१९०॥ पद और वाक्यमें रहनेसे शब्दमें स्थित दोष दो प्रकारके होते हैं। इनमेंसे पहले पदस्थित दोषोंका निरूपण किया जाता है । पददोष-नेयार्थ, अपुष्टार्थ, निरर्थ, अन्यार्थ, गूढपदपूर्वार्थ, विरुद्धाशय, ग्राम्य, क्लिष्ट, अयुक्त, संशय, अश्लोल, अप्रतीत, च्युतसंस्कार, परुष, अविमृष्टकरणीयांश, अयोजक और असमर्थ इस प्रकार सत्रह पददोष हैं ॥१९॥ नेयार्थका स्वरूप और उदाहरण ___ अपने संकेतसे युत निर्मित अर्थको नेयार्थ कहते हैं। यथा गरुडध्वज शब्द विष्णुका वाचक है, विष्णुको हरि कहते हैं और हरि कहनेसे सूर्यका भी बोध होता है । अतएव यहां गरुडध्वजका सूर्यको वाचकतामें नेयाथं दोष है ॥१९२॥ ____ गरुडध्वज ऐसा कहने से विष्णुका बोध हुआ, वे हरि हैं और सूर्यको भी हरि कहा जाता है, अतएव गरुडध्वज यहाँ सूर्यका वाचक है । अपुष्टार्थका स्वरूप और उदाहरण प्रकृतमें अनुपयोगी अर्थको अष्टार्थ कहते हैं; यथा बारहके आधाके आधा नेत्र महेश्वर में कल्पित हैं ॥१९३॥ १. नेयो--ख । २. यथा--क । ३. सरोजनिवहन्--ख । ४. योगार्थ--ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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